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________________ १०३ -षष्ठोऽङ्कः __ १०३ (पुनमैत्रयं प्रति सविनयम्) एते ते मदवारिशीकरभरस्यूताम्बराः सिन्धुरा स्तेऽप्येते प्रलयप्रभञ्जनजवप्रत्यर्थिनो वाजिनः। श्रीरेषा शरदिन्दुदर्पजयिनी सोऽहं कृतज्ञस्ततो, येनार्थस्तममीषु यूयमचिराद् गृहणीत किं शङ्कया?।।११।। मैत्रेय:- द्विजातिरहमन) गजवाजिप्रभृतीनां सम्पत्तीनाम्, तदिदानीमिदमेवाभ्यर्थये। विजयवर्मा- (ससम्भ्रमम्) किं तत् ? मैत्रेयः- परममित्रं मित्रानन्दनामानं वणिज सिंहलाभ्यन्तरे क्वचिदपि गवेषयित्वा मम सङ्कटयत। विजयवर्मा- एतावतोऽप्यर्थस्य का नाम प्रार्थना? कोऽत्र भोः ? (प्रविश्य) पुरुष:- एषोऽस्मि। ____ (पुन: विनयपूर्वक मैत्रेय से) ये मदजल के कणों से आकाश को व्याप्त (सिक्त) कर देने वाले हाथी हैं, ये प्रलयकारी आँधी के वेग से प्रतिस्पर्धा करने वाले घोड़े हैं, शरत्कालीन चन्द्रमा के सौन्दर्याभिमान को जीतने वाली यह लक्ष्मी (वैभव) है और आपका कृतज्ञ मैं हूँ। तो इनमें से जो वस्तु आपकी अभीष्ट हो, उसको आप निःसङ्कोच शीघ्र ग्रहण कर लें।।११।। मैत्रेय-मुझ ब्राह्मण को इन हाथी-घोड़े जैसी सम्पत्ति की आवश्यकता नहीं, इस समय तो मैं बस यही प्रार्थना करता हूँ कि - विजयवर्मा-(शीघ्रतापूर्वक) वह क्या? मैत्रेय-मेरे परममित्र मित्रानन्द नामक वणिक् को सिंहलद्वीप के अन्दर कहीं से भी खोजकर मुझसे मिलवा दीजिए। विजयवर्मा-यह भी कोई प्रार्थना है! अरे! यहाँ कौन है? (प्रवेश कर) पुरुष-मैं हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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