SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् सुनन्दः- देव ! विरमतु कथेयम्। अनया खलु द्विजराजपादाः महती त्रपामुद्वहन्ति। विजयवर्मानिष्काङ्क्षमुपकारोऽपि विश्वोत्तीर्णा सतां क्रिया। अप्रकाशस्तु यस्तस्य तत्र ब्रह्माऽपि मन्थरः।।८।। सुनन्द:- देव! पञ्चषाः सन्ति ते केचिदुपकर्तुं स्फुरन्ति ये। ये स्मरन्त्युपकारस्य तैस्तु बन्ध्या वसुन्धरा।।९।। विजयवर्मा- किमेवमार्यानप्युपकार्याननार्यैः संक्लेशितः सन्तर्जयसि? प्रत्युपकारमाधातुमनुरूपं निरोजसः। उपकारं स्मरन्तोऽपि विस्मरन्ति महौजसः।।१०।। सुनन्द-मण्डलेश्वर! यह कथा यहीं समाप्त हो, क्योंकि इससे ब्राह्मणश्रेष्ठ मैत्रेय बहुत लज्जा (सङ्कोच) का अनुभव कर रहे हैं। विजयवर्मा-फल की इच्छा के विना किसी का उपकार करना सज्जनों का एक अलौकिक कार्य है और ऐसे उपकार को (दूसरों के समक्ष) प्रकाशित न करने का जो कार्य है उस पर तो ब्रह्मा भी स्तब्ध हो जाते हैं।।८।। ___ सुनन्द- देव! इस लोक में ऐसे पाँच-छ: लोग ही हैं, जो किसी का उपकार करने हेतु प्रवृत्त होते हैं और जो अपने ऊपर किये गये उपकार का स्मरण रखते हैं, ऐसे कृतज्ञों से तो यह पृथ्वी प्राय: शून्य ही है।।९।। विजयवर्मा-क्यों इस प्रकार कतिपय दुर्जनों से पीड़ित होकर तुम उपकार्य श्रेष्ठजनों का भी तिरस्कार कर रहे हो? हीन कोटि के लोग अनुरूप प्रत्युपकार की भावना से दूसरों का उपकार किया करते हैं, परन्तु महापुरुष दूसरों के प्रति किये गये उपकार का स्मरण करते हुए भी उसको भूल जाते हैं- प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं रखते।।१०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy