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________________ १०१ षष्ठोऽङ्कः मैत्रेय:- किमेवमादिशन्ति मण्डलेश्वरपादाः? धात्रीधरैकधुरबाहुषु किं नृपेषु, पुष्णाति भद्रमुदरम्भरिरध्वनीनः? युष्मादृशान् घटयितुं विधिरुन्मदिष्णुः, श्रेयांसि तत्र पुनरौपयिकं स्थितोऽहम्।।६।। सुनन्दः- (साश्चर्यम्) देव ! सेयं महत्त्वस्य गाम्भीर्यस्य च परा काचिदुपनिषत्। विजयवर्मा- माहात्म्यदर्पसर्पमसंस्पृशन्तो यत्किञ्चिदपि समादिशत यूयम्। अहं पुनस्तत्रभवतो भवतो विना प्राणितमात्मनो विधेरप्यविधेयमाकलयामि। मैत्रेय:- रत्नाकराधीश्वर ! सम्पत्तिर्वा विपत्तिर्वा रोहन्ती दैवमीक्षते। एवमप्यर्थिताऽन्येषु पुंसां क्लैब्याय केवलम्।।७।। मैत्रेय-ऐसा क्यों कह रहे हैं मण्डलेश्वर महोदय? जिनकी भुजा इस पृथ्वी को धारण करने में एकमात्र धुरी का कार्य करती है,ऐसे राजाओं का अपनी उदरपूर्तिमात्र में संलग्न एक पथिक भला क्या कल्याण कर सकता है? आप जैसे महानुभावों का कल्याण करने के लिए स्वयं विधाता ही प्रसत्रतापूर्वक तत्पर हैं, मैं तो उसका निमित्तमात्र हूँ।।६।। सुनन्द-(आश्चर्यपूर्वक) मण्डलेश्वर! यह तो बड़ी उत्कृष्ट और गम्भीरतापूर्ण ज्ञान की बात है। विजयवर्मा-श्रेष्ठता के अहङ्कार से रहित आप की जो इच्छा हो वह आदेश दीजिए। मैं विधाता के भी असाध्य उस कार्य को अपने प्राणों की चिन्ता किये विना पूर्ण करूँगा। मैत्रेय-रत्नाकरनरेश! सम्पत्ति अथवा विपत्ति का उदय तो मनुष्य के भाग्य के अधीन है, किन्तु ऐसा होने पर भी इनके लिए दूसरे के समक्ष हाथ फैलाना मनुष्य की अशक्ति (दीनता) को ही प्रकट करता है।।७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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