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________________ १०० कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (इति निष्क्रान्तौ) ।। विष्कम्भकः।। (ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टः समैत्रेयो विजयवर्मा सुनन्दप्रभृतिकश्च परिवारः।) विजयवर्मा- कोऽत्र भोः ? (प्रविश्य) माधव्य:- एषोऽस्मि। विजयवर्मा- माधव्य ! नव्या कामप्यद्य भगवतो यक्षाधिराजस्य पूजां विरचय। स्वयं च वयमध बलिं विधास्याम इत्युपहारपशुः पवित्रयित्वा प्रगुणीकार्यः। माधव्यः- यदादिशति रत्नाकराधिपतिः। (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः।) विजयवर्मा- (सविनयं मैत्रेयं प्रति) प्राणेभ्यो नापरं वस्तु प्रेमपात्रं वपुष्मताम्। ते च मे युष्मदायत्ताः किं ब्रुवेऽहमतः परम्?।।५।। (दोनों निकल जाते हैं।) विष्कम्भक समाप्त।। (तदनन्तर यथानिर्दिष्ट मैत्रेयसहित विजयवर्मा और सुनन्दप्रभृति अनुचरगण प्रवेश करते हैं।) विजयवर्मा-अरे यहाँ कौन है ? (प्रवेश कर) माधव्य-मैं हूँ। विजयवर्मा-माधव्य! आज भगवान् यक्षाधिराज कुबेर की विशेषपूजा की व्यवस्था करो और आज मैं स्वयं बलि प्रदान करूँगा, इसलिए बलिपशु को स्नानादि करवाकर तैयार करो। माधव्य-रत्नाकराधिपति की जो आज्ञा (यह कहकर वह निकल जाता है।) विजयवर्मा-(विनयपूर्वक मैत्रेय से) प्राणियों के लिए अपने प्राणों से प्रिय कोई अन्य वस्तु नहीं होती और वह भी मैंने आपको समर्पित कर दी। अब इसके आगे मैं क्या कहूँ? ।।५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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