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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (इति निष्क्रान्तौ)
।। विष्कम्भकः।। (ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टः समैत्रेयो विजयवर्मा सुनन्दप्रभृतिकश्च परिवारः।) विजयवर्मा- कोऽत्र भोः ?
(प्रविश्य) माधव्य:- एषोऽस्मि।
विजयवर्मा- माधव्य ! नव्या कामप्यद्य भगवतो यक्षाधिराजस्य पूजां विरचय। स्वयं च वयमध बलिं विधास्याम इत्युपहारपशुः पवित्रयित्वा प्रगुणीकार्यः।
माधव्यः- यदादिशति रत्नाकराधिपतिः। (इत्यभिधाय निष्क्रान्तः।) विजयवर्मा- (सविनयं मैत्रेयं प्रति)
प्राणेभ्यो नापरं वस्तु प्रेमपात्रं वपुष्मताम्। ते च मे युष्मदायत्ताः किं ब्रुवेऽहमतः परम्?।।५।।
(दोनों निकल जाते हैं।)
विष्कम्भक समाप्त।। (तदनन्तर यथानिर्दिष्ट मैत्रेयसहित विजयवर्मा और सुनन्दप्रभृति अनुचरगण
प्रवेश करते हैं।) विजयवर्मा-अरे यहाँ कौन है ?
(प्रवेश कर) माधव्य-मैं हूँ।
विजयवर्मा-माधव्य! आज भगवान् यक्षाधिराज कुबेर की विशेषपूजा की व्यवस्था करो और आज मैं स्वयं बलि प्रदान करूँगा, इसलिए बलिपशु को स्नानादि करवाकर तैयार करो।
माधव्य-रत्नाकराधिपति की जो आज्ञा (यह कहकर वह निकल जाता है।) विजयवर्मा-(विनयपूर्वक मैत्रेय से)
प्राणियों के लिए अपने प्राणों से प्रिय कोई अन्य वस्तु नहीं होती और वह भी मैंने आपको समर्पित कर दी। अब इसके आगे मैं क्या कहूँ? ।।५।।
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