________________
कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् . मङ्गलक:- ततः प्रहतसर्वाङ्गीणमर्माणं कण्ठगतप्राणं विजयवर्माणं विलोक्य विषादी निषादी शनैः शनैः गजराज प्रतिनिवर्त्य स्वं शिबिरमायातवान्।
मदनक:- अहह ! विक्रमबाहोः प्रतापक्षयः। (पुनर्विमृश्य) आर्य ! कोऽयं। द्विजातिमैत्रेयः?, कथं च विजयवर्मणे सङ्कटितवान्?
मङ्गलक:- अयं च किल वैदेशिकः सैनिकैर्धमद्भिर्विपक्षप्रणिधिरिति मन्वानः सङ्गह्य विजयवर्मणे समुपनीतः। विजयवर्मणाचप्रहारप्रसूतप्रभूतवेदनामूबॅलेन तदात्व एव व्यापादयितुमादिष्टः।
मदनक:- ततस्ततः?
मङ्गलक:- ततो 'मास्म मांव्यापादयः, तवाहं महान्तमुपकारमाधास्यामि' इत्यभिधाय मैत्रेयः केनाप्यौषधद्रवेणोपलिप्य विजयवर्माणं प्ररूढसर्वाङ्गीणव्रणमकरोत् ।
मदनक:- (सकौतुकम्)
मङ्गलक-तत्पश्चात् पूर्ण घायल विजयवर्मा को मरणासन्न समझकर अत्यन्त क्लान्त चक्रसेन विश्राम करने हेतु शनैः-शनै: गजराज को लौटाकर अपने शिविर में वापस चला गया।
मदनक- आह! विक्रमबाहु के प्रताप (शौर्य) का क्षय (दुःखद है)। (पुनः विचार कर) आर्य! यह ब्राह्मण मैत्रेय कौन है? तथा विजयवर्मा से कैसे मिला?
मङ्गलक-यह वस्तुत: परदेशी है, जिसको भ्रमण करते हए सैनिकों ने शत्रु का गुप्तचर समझकर पकड़ लिया और विजयवर्मा के पास ले आये और शस्त्रप्रहार की तीव्र वेदना से मूर्च्छितप्राय विजयवर्मा ने तत्क्षण ही इसको मारने का आदेश दे दिया।
मदनक-तब उसके पश्चात् ?
मङ्गलक-उसके पश्चात् 'मुझे मत मारो, मैं तुम्हारा महान् उपकार करूँगा' यह कहकर मैत्रेय ने किसी औषधद्रव का लेप लगाकर विजयवर्मा के समस्त घावों को ठीक कर दिया।
मदनक-(कुतूहलपूर्वक)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org