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षष्ठोऽङ्कः मङ्गलक:- अधकिल रत्नाकराभ्यन्तरे विपक्षसौप्तिकोपनिपातकिंवदन्ती। ततः सैनिकावधानदानाय विजयवर्मणा मण्डलेश्वरेण प्रेषितोऽस्मि ।
मदनकः- आर्य ! आमूलतः सम्परायसंरम्भं श्रोतुमिच्छामि ।
मङ्गलक:- देवस्य विक्रमबाहोरादेशेन चक्रसेनमुत्पाटयितुं विजयवर्मा प्रस्थित इति तवापि प्रतीतमेव। अनन्तरं च
क्षुण्णासु कोटिषु मदान्धदृशां भटानां,
नष्टे द्विपेन्द्रतुरगोक्षुरपत्तिसैन्ये। अन्योन्यमुद्यतकृपाणकडम्बकुन्ती,
योद्धं स्वयं परिवृढौ रभसात् प्रवृत्तौ।।२।। मदनक:- (ससम्भ्रमम्) ततस्ततः?
मङ्गलक:- अनन्तरं च चक्रसेनः प्राणापहारिभिर्निशातहेतिभिर्विजयवर्माणं सर्वाङ्गीणमभिहतवान्।
मदनक:- (सभयम्) ततस्ततः?
मङ्गलक-आज रत्नाकर नगर में शत्रु-सैनिकों के आक्रमण की अफवाह है, अत: मण्डलेश्वर विजयवर्मा ने मुझे सैनिकों को सावधान करने हेतु भेजा है।
मदनक-आर्य! युद्ध की सम्पूर्ण कथा सुनना चाहता हूँ।
मङ्गलक-महाराज विक्रमबाहु के आदेश से चक्रसेन को उखाड़ फेंकने (मारने) हेतु विजयवर्मा ने प्रस्थान किया था, यह तो तुमको भी ज्ञात ही है। और उसके पश्चात् -
मदमत्त हाथियों से मतवाले असंख्य सैनिकों तथा गजराज, अश्व एवं उभट पदसैनिकों के मारे जाने पर एक दूसरे पर तलवार और भाला ताने हुए दोनों सेनापति (विजयवर्मा एवं चक्रसेन) स्वयं ही प्रचण्ड वेगपूर्वक परस्पर युद्ध करने लगे।।२।।
मदनक-(घबड़ाहटपूर्वक) उसके पश्चात् ?
मङ्गलक-तब चक्रसेन ने प्राणघातक तीक्ष्ण शस्त्रों के प्रहार से विजयवर्मा को पूर्णरूपेण घायल कर दिया।
मदनक -(भयपूर्वक) फिर उसके पश्चात् ?
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