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________________ ||अथ षष्ठोऽतः।। (ततः प्रविशति मङ्गलक:) मङ्गलक:- (साश्चर्यम्) समुद्रे पतितस्यापि क्षिप्तस्यापि नभस्तलात्। पुनः सम्पद्यते लक्ष्मीर्यदि प्राणैर्न मुच्यते।।१।। कथमपरथा तथाविधे त्रिलोकीप्रतिभयैकसदसि महति सम्परायमहार्णवे विपक्षक्षितिपालकरालकरवालप्रहारैर्विजयवर्मणः प्रत्यङ्गं व्रणेन वैशसम्?, कथं चाकाण्डसटितपान्थप्रवर्तितौषधद्रवोपलेपेन तदात्व एव व्रणश्रेणीसंरोहणम्? सर्वथाऽप्यपारव्यसनकान्तारपतितेनापि प्रेक्षापूर्वकारिणा प्राणिना न विषादवैधुर्यमाधेयम्। भवतु, यथादिष्टमादधामि। (पुरोऽवलोक्य) कथमयमितः परापतति मदनकः? ___ (प्रविश्य) मदनक:- आर्य ! क्व प्रस्थितोऽसि? ॥षष्ठ अङ्क। (तत्पश्चात् मङ्गलक प्रवेश करता है।) मङ्गलक-(आश्चर्यपूर्वक) समुद्र में डूबे हुए अथवा आकाश से नीचे फेंके गये व्यक्ति की भी सम्पत्ति पुन: प्राप्त हो जाया करती है, यदि उस व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती।।१।। ___अन्यथा कैसे उस प्रकार के अत्यन्त भयानक युद्धरूप महासमुद्र में विपक्षी राजा के तलवार के भीषण प्रहारों से विजयवर्मा का अङ्ग क्षत हो गया और कैसे अकस्मात् ही उपस्थित पथिक द्वारा लगाये गये औषधद्रव के लेप से तत्क्षण ही समस्त घाव भर भी गया? अत: घोर सङ्कटरूप जङ्गल में फँस जाने पर भी बुद्धिमान् व्यक्ति को विषाद से व्याकुल नहीं होना चाहिए। अच्छा जैसा आदेश है, वैसा ही करता हूँ। (सामने देखकर) क्या यह मदनक इधर ही आ रहा है? (प्रवेश कर) मदनक-आर्य! आप कहा जा रहे हैं? १. 'प्रतिवर्तितौषधराजवलयेन ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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