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________________ ९५ पञ्चमोऽङ्कः तत् किं वस्तु तदस्ति किञ्चन गुरौ ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, येनाऽऽनृण्यममुष्य विश्वजनतारत्नस्य यामो वयम्? ।।१३।। तत् तावदेतौ जम्पती स्ववेश्मनि नीत्वा प्रसादय अस्मन्निर्विशेषेण गौरवविशेषेण यावन्निजनगरं प्रति प्रस्थाप्येते। कामरति:- (स्वगतम्) प्रियं नः। राजा- वयं च कुमारेण सह सुख-दुःखवार्ता विधातुं मध्यं प्रविशामः।। (इति निष्क्रान्ता: सर्वे।) ।। पञ्चमोऽङ्कः समाप्तः।। देकर हम सम्पूर्ण जनसमूह के रत्नभूत इस मित्रानन्द के ऋण से मुक्त हो सकें? ।।१३।। अत: तब तक इस दम्पती को अपने भवन में ले जाकर इनका पूर्ण राजकीय सम्मान करो, जब तक कि ये अपने नगर को नहीं लौट जाते। कामरति-(मन ही मन) हमारे लिए तो अच्छा ही है। राजा-और हम कुमार के साथ सुख-दुःख की बात करने महल के अन्दर जा रहे हैं।। (सभी निकल जाते हैं।) ।।पञ्चम अङ्क समाप्त।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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