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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् कुमार:-(मित्रानन्दमवलोक्य) तात! वध्यनेपथ्यधारी राजसदसि कोऽयम्? राजा- महदस्य चरितमनाख्येयमिदानी पवित्रे भवत्सम्पर्कपर्वणि।
(पुन: सविनयं मित्रानन्दं प्रति) त्वमेवास्य स्वामी, त्वमसि जनकस्त्वं च जननी,
गुरुस्त्वं, बन्धुस्त्वं, त्वमसि परमं मित्रमपि च। त्वया येनाऽऽकृष्टस्त्रिभुवनजनग्रासरभसप्रवेल्लज्जिह्वाग्रात् प्रसभमयमास्यात् पितृपतेः।।१२।।
(मित्रानन्दः सलज्जमधोमुखो भवति।) राजा- (अमात्यं प्रति) प्राणानेष सुताय नः प्रवितरन् निःशेषमस्मत्कुलं,
प्राणैः प्रीणितमावहत् प्रविलसत्कारुण्यपुण्याकृतिः।
कुमार-(मित्रानन्द को देखकर) पिताजी! राजभवन में वध्यवस्त्रधारी यह कौन है?
राजा-इसकी कथा बहुत विस्तृत है और तुमसे मिलन के इस पवित्र अवसर पर सुनायी नहीं जा सकती।
(पुन: विनयपूर्वक मित्रानन्द से) । तुम ही इसके स्वामी हो, तुम ही पिता और तुम ही माता हो। इसके गुरु भी तुम हो, बन्धु भी तुम हो और परम मित्र भी तुम ही हो। क्योंकि, तुमने ही इसको यमराज के त्रिलोक के प्राणियों का भक्षण करने को आतुर लपलपाती हुई जिह्वा वाले मुख से बलपूर्वक बाहर खींच लिया है।।१२।।
(मित्रानन्द लज्जा से मुख नीचे झुका लेता है।) राजा-(अमात्य से)
हमारे पुत्र को प्राणदान देने वाला और हमारे समस्त कुल को हृदय से आनन्दित करने वाला यह मित्रानन्द करुणा और पुण्य से विभूषित आकृति वाला है। तो क्या इस विशाल ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई वस्तु है, जिसे प्रतिदान में
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