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________________ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् वणिजः- (विलोक्य) भट्टा! न इत्थ अम्हाणं आभरणं वा दविणं वा किं पि अत्थि। (भर्तः ! नात्रास्माकमाभरणं वा द्रविणं वा किमप्यस्ति।) राजा- अमात्य! न तावदमुनाऽस्मत्पौराणां किमप्यपहृतम्, देशान्तरतस्करनिग्रहे तु के वयम्? कामरति:- (स्वगतम्) ने नामास्मिस्तस्करे जीवति ममेयं कथञ्चिदपि वनिता सम्पद्यते, तदयं यथाकथञ्चिदपि व्यापादयितव्यः। भवतु। (प्रकाशम्) देव! निश्चयेन तावदयं चौरः। साम्प्रतमेव चायमायातस्ततः पौराणां किमपि नापकृतवान्। अतः परं पुनः सर्वमपि शनैः शैनरपकुर्यात्। चौरश्च राज्ञां स्वदेशजो वा परदेशजो वा वध्य एव। (पुनरपवार्य) इदं धनम् इयं स्त्री च देवपादानामध्यणे विश्राम्यतु। चौरस्य पुनः प्रतिविधानं कालपाशः कुरुताम्। राजा- (कालपाशं प्रति) यदभिधत्ते मन्त्री तदनुष्ठेयम्। (कामरति: कालपाशस्य कर्णे- एवमेव।) राजा-तुम सब अपने-अपने आभूषणों एवं धन को पहचान कर ले लो। व्यापारीगण-(देखकर) स्वामी! इनमें कोई भी आभूषण या धन हमारा नहीं है। राजा-अमात्य! इसने तो हमारे नगरवासियों का कुछ भी नहीं चुराया, तो फिर दूसरे देश के चोर को पकड़ने वाले हम कौन होते हैं? कामरति-(मन ही मन) इस चोर के जीवित रहते यह तरुणी मुझको किसी भी प्रकार नहीं मिल सकती, अत: इसको जिस किसी प्रकार मरवाना चाहिए। अच्छा। (प्रकट रूप से) महाराज! यह अवश्य ही चोर है और अभी-अभी आया है, इसीलिए नगरवासियों का कुछ भी अपकार नहीं कर पाया है। अब पुनः धीरे-धीरे सब का अपकार करेगा और फिर चोर स्वदेश का हो या परदेश का, वह तो वध्य होता ही है। (हाथ की ओट लेकर) यह धन और यह स्त्री महाराज के पास विश्राम करे और चोर के दण्डादि की व्यवस्था कालपाश करे। राजा-(कालपाश से) मन्त्री जो कहते हैं, वही किया जाय। १. निग्रहेषु ख। २. न चास्मि' ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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