________________
Clo
पञ्चमोऽङ्कः वक्त्रं पात्रं लवणमधुनः पद्महृद्यौ च पाणी,
वाणी स्वादुश्चकितहरिणीहारिणी नेत्रपत्रे। लज्जासज्जा स्थितिरविकृति रिसत्त्वं महत्त्वं,
तत् त्वं तत्त्वं कथय ननु नः काऽसि? कस्यासि पत्नी?।।९।। कौमुदी– (सलज्जम्) देव ! वणिअस्स दुहिआ, एदस्स बहुआ। (देव ! वणिजो दुहिता, एतस्य वधूः।)
कामरति:- देव! नेयमस्य पत्नी, किमुतानेन कुतोऽप्यपहृत्य मन्त्रेण वा तन्त्रेण वा व्यामोहिता, तदियं मुहुर्मुहुरेतदनुकूलं व्याहरति। राजा- (विमृश्य) अरे कालपाश? पौरानाह्वय।
(प्रविश्य कृतोष्णीषा: सप्ताष्टा वणिजः प्रणमन्ति।) राजा- उपलक्ष्योपलक्ष्य प्रतिगृहणीत यूयं स्वं स्वमाभरणं द्रविणं च।
राजा-(कौमुदी से)
तुम्हारा मुख लावण्यरूपी मधु का पात्र है, भुजाएँ कमल के समान मनोहर (सुकोमल), वाणी मधुर और आँखें चकित हरिणी के समान मनोहारिणी हैं। लज्जा ही तुम्हारा आभूषण है, मन सर्वथा विकारशून्य है और आत्मबल ही महत्त्व है। तो तुम हमको सच-सच बतलाओ कि तुम कौन हो और किसकी पत्नी हो? ।।९।।
कौमुदी-(लज्जापूर्वक) महाराज! मैं एक व्यापारी की पुत्री और इस (मित्रानन्द) की पत्नी हूँ।
कामरति-महाराज! यह इसकी पत्नी नहीं है, अपितु इसने कहीं से अपहरण कर इसको मन्त्र या तन्त्र से अपने वश में कर लिया है, इसीलिये यह इसके अनुकूल बोल रही है।
राजा-(सोचकर) अरे कालपाश! नागरिकों को बुलाओ। (सात-आठ पगड़ीधारी व्यापारी प्रवेश करके प्रणाम करते हैं।'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org