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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् राजा- (विमृश्य) तं त्वरिततरमानुपदिकमाकारय।
(प्रविश्य) आनुपदिक:- एस म्हि। (एषोऽस्मिा ) राजा- अरे! अयं तस्करः त्वया पदानुसारेण समुपनीतः?
आनुपदिक:--- (मित्रानन्दपदान्यवलोक्य) भष्टा! अन्नालिशा शा पदपद्धई जा कच्चायणीभवणं पविष्टा।
(भर्तः ! अन्यादृशी सा पदपद्धतिः या कात्यायनीभवनं प्रविष्टा।) राजा- अमात्य ! किमिदम्?
कामरति:- देव! अयमपि चौरः, यस्य च पदपद्धतिः कात्यायनीभवनं प्रविष्टा सोऽपि चौरः। महदिदं देवस्य नगरम्, सम्भवन्ति भूयांसो दस्यवः।
राजा– (कौमुदी प्रति)
राजा-(सोचकर) उस आनुपदिक को शीघ्र बुलाओ।
(प्रवेश कर) आनुपदिक- मैं उपस्थित हूँ। राजा-अरे! क्या इस चोर को तुमने पदचिह्न के आधार पर पकड़ा है?
आनुपदिक-(मित्रानन्द के पैरों को देखकर) महाराज! वह पदचिह्न अन्य प्रकार का था, जो चण्डिका-मन्दिर में प्रविष्ट हुआ था।
राजा-अमात्य! यह क्या है?
कामरति-महाराज! यह भी चोर है और जिसका पदचिह्न चण्डिका मन्दिर में प्रविष्ट हुआ था, वह भी चोर ही था। महाराज का यह नगर बहुत विशाल है और इसमें बहुत से चोर हो सकते हैं। __राजा-(कौमुदी से)
१. एसो म्हि ख।
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