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पञ्चमोऽङ्कः
अस्याः सरोरुहदृशः सततोदयं च, निर्लाञ्छनं च विरचय्य मुखं विधातुः । खण्डोदयं च जनविश्रुतलाञ्छनं च, चन्द्रं पुनर्घटयतो विदितो विचारः । । ७ ।। कामरतिः - (साभिलाषम्) देव! अज्ञातलक्ष्मणि सदोदयवृत्तभाजि, पूर्वं सरोरुहदृशां घटिते मुखेन्दौ । सारूप्यदूषणभयाद् विधिनाऽयमिन्दुः, पक्षक्षयी च घटितः स्फुटलाञ्छनश्च ।। ८ ।। (पुनः स्वगतम्) विफल एव ममावतारो यद्यनया सह न क्रीडामि । राजा- अरे कालपाश! कुत्र प्रदेशे कथं चायं प्राप्तः ? आनुपदिकेनार्पितश्चण्डिकायतने प्रतिगृहीतः ।
कालपाशः
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इस कमलनयनी के सतत दीप्ततर होते हुए और निष्कलङ्क मुख की रचना कर विधाता का खण्ड रूप में उदित होने वाले, लोकविश्रुत कलङ्कयुक्त चन्द्रमा को पुनः रचने का विचार विदित होता है अर्थात् ऐसा प्रतीत होता है कि विधाता ने अखण्ड एवं निष्कलङ्क चन्द्रमा की सृष्टि के विचार से ही मानो इस कौमुदी के सतत दीप्तिमान् और निष्कलङ्क मुख की रचना की हो । । ७ ।।
कामरति - (आसक्तिपूर्वक) महाराज!
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पहले इस कमलनयनी के निष्कलङ्क और सतत दीप्तिमान् मुखचन्द्र की रचना हो जाने पर विधाता ने मानो सारूप्यदूषण के भय से इस चन्द्रमा को पक्षक्षयी और स्फुट कलङ्कयुक्त बनाया । । ८ ।।
(पुन: मन में) यदि इस कौमुदी के साथ रमण नहीं करता हूँ तो मेरा जन्मग्रहण निष्फल ही है।
राजा - अरे कालपाश! यह चोर कहाँ और कैसे पकड़ा गया ? कालपाश - आनुपदिक ने चण्डिका - मन्दिर में पकड़ कर मुझे सौंप दिया।
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