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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् राजा- अरे कालपाश! करण्डकाभ्यन्तरमवलोकय।
कालपाश:- (विलोक्य) देव ! एतानि सप्त कुण्डलानि, त्रयोदश मञ्जीराणि, एते चैकविंशतिरङ्गदाः, सप्तदश चूडामणयः, अपरस्य पुनर्वप्रायस्य रत्नसमूहस्य न शक्यते सङ्ख्यानमाधातुम्।
राजा- भद्र! त्वदीयमेतदाभरणम्? कौमुदी- (सलज्जम्) अध इं? (अथ किम् ?) . राजा- अमात्य !
दम्पत्योरियमाकृतिरयं च वाचां दृशां च विनिवेशः। पिशुनयति साधुभावं चौर्यं तु करण्डको वदति।।६।।
कामरति:- देव! मा शतिष्ठाः। तस्कर एवायम्। कथमपरथा विषमसङ्ख्योऽयं नेपथ्यप्रकारः?
राजा- (कौमुदी विलोक्य) राजा-अरे कालपाश! देखो टोकरी में क्या है?
कालपाश-(देखकर) महाराज! ये सात कुण्डल, तेरह पायल, इक्कीस बाजूबन्द और सत्ररह चूड़ामणि हैं। अन्य वज्रसदृश कठोर रत्नों की तो संख्या बता पाना सम्भव नहीं है।
राजा- भद्रे! ये आभूषण तुम्हारे ही हैं? कौमुदी-(लज्जापूर्वक) और क्या? राजा-अमात्य!
दम्पति की यह आकृति, वाणी एवं विचारों का विनिवेश इनकी सज्जनता को प्रकट कर रहे हैं, किन्तु यह टोकरी तो इनके चौर्य को प्रमाणित कर रही है।।६।।
कामरति-महाराज! शङ्का न करें। यह चोर ही है, अन्यथा इसकी ऐसी विचित्र वेशभूषा क्यों है?
राजा-(कौमुदी को देखकर) १. एतस्य ख। २. दिशती ख।
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