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पञ्चमोऽङ्कः
कामं कामं कुसुमधनुषोऽप्यावहन्ती सशोके, लोकेऽप्यस्मिन् यदि मृगदृशामीदृशी रूपलक्ष्मीः । क्लेशाकीर्णे तपसि विपुलस्वर्गभोगोत्सुकानां, मन्दीभूता खलु तदधुना प्राणभाजां प्रवृत्तिः ।।४।। राजा - ( साक्षेपम् )
रे रे तस्कर ! कस्तवात्र जनकः ? कः सोदरः ? कः सुतः ?, करवाता ? किमु मित्रमस्ति ? सदनं ते कुत्र? के बान्धवाः ? | कस्येयं कुसुमेषुकेलिसरसी सर्वाङ्गरम्या प्रिया ?,
केनाथ व्यसनेन विह्वलमना मुष्णासि नः पत्तनम् ? । । ५ । । मित्रानन्दः - ( सभयम्) देव! समुद्रोपजीवी मित्रानन्दनामा वणिगहम् उद्वरितशेषं कियदपि द्रविणमादाय स्वनगरं प्रति प्रचलितः । अत्र च मे देव एव त्राता पिता बान्धवो वा । इयं च मे सधर्मचारिणी । नगरमहं मुष्णामि न वा? इत्यत्र देवः प्रमाणम् ।
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यतः इस दुःखमय संसार में भी मृगनयनियों की इस प्रकार की सौन्दर्यलक्ष्मी है, जो कामदेव को भी अत्यधिक कामासक्त कर सकती है, इसी कारण आजकल विपुल स्वर्गोपभोग के उत्सुक प्राणियों की कष्टमय तपस्या में प्रवृत्ति (रुचि) मन्द पड़ गयी है ।।४।।
राजा - (क्रोधपूर्वक)
रे रे चोर ! तुम्हारे माता-पिता कौन हैं? कौन भाई है ? कौन पुत्र है ? कौन रक्षक है ? कौन मित्र है ? तुम्हारा घर कहाँ है ? और बन्धुजन कौन हैं ? कामकेलि की सरोवररूपिणी यह सर्वाङ्गसुन्दरी प्रिया किसकी है? और किस दुःख से विह्वल होकर तुम हमारे नगर को लूट रहे हो ? ।। ५ ।।
मित्रानन्द - ( भयपूर्वक) महाराज ! समुद्र के माध्यम से अपनी जीविका चलाने वाला मैं मित्रानन्द नामक व्यापारी, नष्ट होने से बचे हुए कुछ धन को लेकर अपने घर वापस लौट रहा हूँ। यहाँ तो आप ही मेरे पिता, रक्षक अथवा बन्धु हैं। यह मेरी धर्मपत्नी है और मैं नगर को लूट रहा हूँ या नहीं, इस विषय में तो आप ही प्रमाण
१. अथ क । २. दैवं ख ।
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