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________________ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् कामरति:- प्रभञ्जनप्रकोपप्रभवानामङ्गस्फुरणानां शुभाऽशुभोदर्केषु को नाम विश्रम्भः? (नेपथ्ये वध्यपटहध्वनिः।) राजा- अमात्य ! महोत्सवदिने किमिदम्? (प्रविश्य) प्रतीहार:- वर्धसे देव! वर्धसे, प्राप्तः कालपाशेन नगरलुण्टाकस्तस्करः। राजा- क्वासौ, क्वासौ? (ततः प्रविशति कालपाशेन केशैर्गृहीतो मित्रानन्द: मूर्धकृतकरण्डिका कौमुदी च।) राजा– (साश्चर्यम्) अमुना नेत्रसुधाञ्जनैकसुहृदाऽप्याकारेण चौर्यकरणम्? अहो! विचित्रः कर्मणां विपाकः। कामरति:- (कौमुदीमवलोक्य साभिलाषमात्मगतम्) कामरति- अत्यधिक क्रोध के प्रभाववश फड़कने वाले अङ्गों के शुभाशुभसूचक होने में विश्वास कैसा? अर्थात् क्रोधावेश के कारण फड़कने वाले अङ्ग शुभाशुभसूचक नहीं हो सकते। (नेपथ्य में वध्यपटह की आवाज सुनायी देती है।) राजा-अमात्य! महोत्सव के दिन यह क्या? (प्रवेश कर) प्रतीहार-जय हो देव! आपकी जय हो, नगर को लूटने वाला चोर कालपाश द्वारा पकड़ा गया। राजा-कहाँ है वह? कहाँ है? (तत्पश्चात् कालपाश द्वारा केश से पकड़ा हुआ मित्रानन्द और शिर पर टोकरी रखी हुई कौमुदी प्रवेश करते हैं।) राजा-(आश्चर्यपूर्वक) आँखों के लिए अमृताञ्जन के समान इस मनोहर आकृति वाले व्यक्ति द्वारा भी चौरकर्म? अहो! कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। कामरति-(कौमुदी को देखकर आसक्तिपूर्वक मन में) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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