SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमोऽङ्कः । ८१ राजा- (साक्षेपम्) अरे करभक ! प्रस्थितो विजयवर्मा समूलकाषं कषितुं दुरात्मानं चक्रसेनम्? पुरुषः- देव! प्रस्थानमेव विज्ञपयितुं सिंहलद्वीपपरमेश्वरपादानां विजयवर्मणा मण्डलेश्वरेण प्रेषितोऽस्मि। राजा- 'दुरुच्छेदः खलु दुरात्मा चक्रसेनः, ततस्त्वया समग्रसामग्रीकेण योद्धव्यम्' इति गत्वा समादिश विजयवर्माणम्। (पुरुषः प्रणम्य निष्क्रान्तः।) राजा- (विमृश्य) अमात्य ! आकाऽऽगमनं वयं स्वनगराद् वत्सस्य लक्ष्मीपतेः, सर्वाङ्गीणसुधानिषेकसुभगामास्वादयामो दशाम्। कामं वाममिदं स्फुरत्यविरतं नेत्रं च गात्रं च नः, कोऽयं नाम परस्परप्रतिहतः सर्गक्रमो वेधसः? ।।३।। राजा-(क्रोधपूर्वक) अरे करभक! विजयवर्मा ने दुष्ट चक्रसेन को समूल नष्ट करने हेतु प्रस्थान किया? पुरुष-देव! प्रस्थान की सूचना देने हेतु ही मण्डलेश्वर विजयवर्मा ने मुझे आपके पास भेजा है। राजा-जाकर विजयवर्मा को आदेश दो कि दुष्ट चक्रसेन का विनाश अत्यन्त कठिन है, अत: उसे पूरी तैयारी से युद्ध करना चाहिए। (पुरुष प्रणाम करके निकल जाता है।) राजा-(सोचकर) अमात्य! पुत्र लक्ष्मीपति के अपने नगर से आगमन का समाचार सुनकर मैं सम्पूर्ण शरीर पर अमृतरस के लेपन जैसी सुखद अवस्था का अनुभव कर रहा हूँ, यद्यपि मेरी बायीं आँख और शरीर का बायाँ भाग भी निरन्तर फड़क रहे हैं। न जाने यह विधाता का कैसा परस्पर विरोधी विधान है।।३।। १. 'मनं निजस्य नग ख । कौ०५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy