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||अथ पञ्चमोऽङ्कः।।
(ततः प्रविशति अमात्य: कामरतिः।) कामरति:- कोऽत्र भोः अस्मत्परिजनेषु?
(प्रविश्य) विनयन्धरः- एषोऽस्मि। कामरति:
लक्ष्मीपयोधरोत्सङ्गसुभगङ्करणांसभूः।
कुमारो रङ्गशालाया मध्यमद्य प्रवेक्ष्यति।।१।। ततः समादिश सङ्गीतकाय गन्धर्वलोकान्। अलङ्कारय विचित्रमणिमौक्तिकपालम्बैश्चीनांशुकावचूलैश्च पुरगोपुरतोरणानि। विधापय मन्दिरद्वारालिन्दकेषु मसूणघुसणगोमुखानि। निर्मापय प्रतिवेश्म बहलपरिमलाकृष्टमधुकरीमधुरझङ्कारमुखराणि मृगमदद्रवच्छटाच्छोटनानि।
पञ्चम अङ्क (तत्पश्चात् अमात्य कामरति प्रवेश करता है।) कामरति-अरे! यहाँ हमारे सेवकों में से कोई है?
(प्रवेश कर) विनयन्धर-मैं हूँ।
कामरति-लक्ष्मी के पयोधररूपी गोद को सुशोभित करने वाले (भगवान् विष्णु) के अंश से उत्पन्न राजकुमार लक्ष्मीपति आज रङ्गशालापुरी में प्रवेश करने वाले हैं।।१।।
अतः गन्धर्वो को सङ्गीतसभा के आयोजन का आदेश दो, नगर के द्वार के तोरणों को विचित्र मणि एवं मोती से जड़ित रेशमी वस्त्रखण्डों से सजाओ, मन्दिर के द्वार के चबूतरों पर चिकने केसर का लेप लगाओ (रङ्गोली सजाओ) और प्रत्येक भवन पर तीव्र सुगन्धि से आकृष्ट भ्रमरसमूह की मधुर झङ्कार से मुखरित और कस्तूरीद्रव की छटा बिखेरने वाले सुन्दर चित्र बनवाओ।
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