SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् रूपकभेदों के साथ स्थापित करते हुए मङ्गलाचरण प्रस्तुत किया चतुर्वर्गफलां नित्यं जैनी वाचमुपास्महे ।। रूपैर्वादशभिर्विश्वं यया न्याय्ये धृतं पथि ।। नाट्यदर्पण - १/१ रामचन्द्र-प्रतिपादित द्वादश रूपकभेदों में से दश तो दशरूपक के समान ही हैं, दो अन्य भेद हैं-नाटिका एवं प्रकरणी। रामचन्द्र की इस मान्यता का आधार भरतमुनि का नाट्यशास्त्र है। भरतमुनि ने दश शुद्ध रूपकभेदों के अतिरिक्त दो सङ्कीर्ण भेदों का भी निरूपण किया है जिनकी रचना नाटक और प्रकरण के मिश्रण से होती है। सङ्कीर्णभेदप्रतिपादिका कारिका है अनयोश्च बन्धयोगादेको भेदः प्रयोक्तभिर्जेयः। प्रख्यातस्त्वितरो वा नाटीसंज्ञाश्रिते काव्ये ।। नाट्यशास्त्र-१५/४७ इस कारिका की व्याख्या दो प्रकार से की जाती है। दशरूपककार धनञ्जय ने ‘एको भेदः प्रयोक्तृभिज्ञेयः' इस कारिकांश के आधार पर 'नाटिका' नामक केवल एक सङ्कीर्ण भेद स्वीकार करते हुए कुल एकादश रूपकभेदों का निरूपण किया है, तथापि उन्होंने अपने ग्रन्थ का नाम शुद्ध रूपकभेदों के आधार पर 'दशरूपक' ही रखा है। जबकि रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने 'प्रख्यातस्त्वितरो वा' इस कारिकांश के आधार पर 'नाटिका' एवं 'प्रकरणी' नामक दो सङ्कीर्ण भेद माने हैं। प्रकरणी में चतुरङ्कत्वादि अन्य सभी धर्म तो नाटिकावत् ही होते हैं, किन्तु नायक राजादि न होकर प्रकरण के समान वणिक् आदि होते हैं और प्रकरण से इसी साम्य के आधार पर इसका नाम 'प्रकरणी' रखा गया है। वणिक् आदि के नायक होने के कारण 'प्रकरणी' में 'फल' भी राज्यप्राप्त्यादि न होकर नायकस्वभावानुकूल स्त्री-प्राप्ति, द्रव्यलाभादि ही होते हैं- “फलमपि महीलाभस्य वणिगादेरनुचितत्वात् स्त्रीप्राप्तिपुरस्सरं द्रव्यलाभादिकं द्रष्टव्यम् ।' रूपकों के संख्या-निर्धारण विषयक उपर्युक्त विवाद को समाप्त करते हुए विश्वनाथ कविराज ने रूपकों की दश संख्या स्थिर कर दी। उन्होंने रामचन्द्रोक्त द्वादश रूपकभेदों में से 'नाटिका' एवं 'प्रकरणी' नामक दो भेदों को उपरूपकों में परिगणित कर लिया और शेष दश भेदों को ही रूपक की मान्यता दी। कविराज का यही मत आज सर्वमान्य है। १. नाट्यदर्पण (वृत्ति), पृ० २१७ (दिल्ली विश्वविद्यालय प्रकाशन)। २. साहित्यदर्पण, ६/३-५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy