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भूमिका काव्य के मुख्यत: दो भेद स्वीकार किये गये हैं- 'दृश्यकाव्य' एवं 'श्रव्यकाव्य'- 'दृश्यश्रव्यत्वभेदेन पुनः काव्यं द्विधा मतम्'। दृश्यकाव्य वह है जो अभिनेय होता है। इसमें लोक की सुखदुःखात्मिका अनुभूतियों को अभिनय के माध्यम से मञ्च पर प्रदर्शित किया जाता है। दृश्यकाव्य की रचना में कवि का मुख्य उद्देश्य होता है सामाजिक को साक्षात् लोकोत्तर फल की प्राप्ति कराना। अभिज्ञानशकुन्तल, उत्तररामचरित आदि नाटक दृश्यकाव्य के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। श्रव्य का अर्थ है श्रवणयोग्य अर्थात् काव्य की वह विधा जो अनभिनेय होती है और जिसका श्रवण या अध्ययन करके सहृदय आनन्दानुभूति करते हैं। रघुवंश, नैषधीयचरित, कादम्बरी आदि इसी कोटि में आते हैं।
काव्य की उपर्युक्त दोनों विधाओं में श्रव्यकाव्य की अपेक्षा दृश्यकाव्य उत्कृष्टतर होता है। यह अनुभवसिद्ध तथ्य है कि किसी वस्तु अथवा घटना के प्रत्यक्षदर्शन में जितना आनन्द है उतना उसके श्रवणमात्र में नहीं। इस दृष्टि से दृश्यकाव्यनाट्य जैसी रसपेशलता श्रव्यकाव्य में कदापि सम्भव नहीं। संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने भी 'काव्येषु नाटकं रम्यम्' कह कर दृश्यकाव्य की उत्कृष्टता को मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है।
दृश्यकाव्य में अभिनेता में रामसीतादि अनुकार्यों के रूप का आरोप होने के कारण उसको 'रूपक' भी कहते हैं- 'तद्रूपारोपात्तु रूपकम्'। भरत, धनञ्जयप्रभृति नाट्याचार्यों ने रूपक के नाटकादि दश भेद स्वीकार किये हैं।
रूपक के दश भेद स्वीकार करने के पीछे धार्मिक भावना भी निहित थी। धनञ्जय ने अपने इष्टदेव विष्णु के दश अवतारों को दृष्टि में रख कर दश रूपकभेदों का प्रतिपादन किया जिसका सङ्केत उन्होंने दशरूपक के मङ्गलाचरण में दिया है
दशरूपानुकारेण यस्य माद्यन्ति भावकाः। नमः सर्वविदे तस्मै विष्णवे भरताय च ।। दशरूपक - १/२ धनञ्जय का ही अनुकरण करते हुए आचार्य रामचन्द्रसूरि ने जैन परम्परा के आचाराङ्ग से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादश अङ्गों का सम्बन्ध स्वोक्त द्वादश
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