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________________ ७६ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् कालपाश:-- दीर्घदंष्ट्र! रासभमधिरोपय तस्करम्, इमां च योषितं मूर्धकृतकरण्डिकां रासभस्याग्रे कुरु। (दीर्घदंष्ट्रः सर्वमाचरति।) मित्रानन्द:- (स्वगतम्) अस्मिन् कर्मणि भिन्नशर्मणि न मे चित्तस्य वाचां भुवो दृष्टेः पाणिपुटस्य (चाप्यणु)रपि व्यापारभारोदयः। भूयांस्येवमपि (श्रुति)ज्वरकराण्यायान्त्यभद्राणि चेनाभेयस्य तदा पदानि शरणं देवस्य दुःखच्छिदः।।१८।। (नेपथ्ये) विधिना विधीयमानं कमलानां बन्धनं त्वदोषाणाम्। द्रष्टुमनलम्भविष्णुर्भानुद्वीपान्तरं श्रयति।।१९।। कालपाश-दीर्घदंष्ट्र! चोर को गधे पर बैठाओ और सिर पर टोकरी रखी हुई इस स्त्री को गधे के आगे कर दो। (दीर्घदंष्ट्र सब कार्य सम्पन्न करता है।) मित्रानन्द-(मन ही मन) इस अशुभ कर्म को करने के लिए मेरे मन, वचन, भौंह, आँखों एवं हाथों में थोड़ी भी प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं हो रही है। ऐसे कर्मों के सम्पादन से तो अनेकानेक अमङ्गल होते हैं, जिनके श्रवणमात्र से लोगों को सन्ताप होता है (अनुभव करने वालों का तो कहना ही क्या?)। ऐसी स्थिति में दुःख का विनाश करने वाले भगवान् ऋषभदेव के चरण-कमल ही शरण हो सकते हैं।।१८।। (नेपथ्य में) दिन में कमलों के विधि द्वारा विधीयमान सङ्कोच (पक्ष में– निर्दुष्ट मित्रानन्द के बन्धन) को देख पाने में असमर्थ सूर्य दूसरे द्वीप का आश्रयण कर रहा (अस्त हो रहा) है।।१९।। (नपथ्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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