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________________ चतुर्थोऽङ्कः मित्रानन्दः- प्रिये ! मा विषीद कृतं बाष्पैः फलं मर्षय कर्मणाम्। सत्यं विषाद-शोकाभ्यां न दैवं परिवर्तते।।१७।। (प्रविश्य सरासभः) श्वपाकः- एशे म्हि, आणवेद शामी। (एषोऽस्मि, आज्ञापयतु स्वामी।) कालपाश:- अरे खड्गिल! प्रसाधय रक्तचन्दनेन तस्करस्य शरीरम्। निक्षिप शरावमालां कण्ठे। मित्रानन्द:- राजपुत्र ! किमस्य श्वपाकस्य संस्पर्शनेन मामपवित्रयसि? कालपाश:- हला दुष्टे ! तर्हि त्वमेव समाचर श्वपाककरणीयं निजे भर्तरि। (कौमुदी रक्तचन्दनेनोपलिप्य शरावमालां कण्ठे निक्षिपति।) मित्रानन्द-प्रिये! दुःखी मत हो, आँसू बहाना व्यर्थ है, अपने कर्मों का फल भोगो। क्योंकि सत्य यही है कि विषाद अथवा शोक करने से भाग्य नहीं बदल जाया करता है।।१७।। (गर्दभ के साथ प्रवेश कर) श्वपाक-मैं (आ गया) हूँ, स्वामी आदेश दें। कालपाश-अरे खड्गिल! चोर के शरीर को लालचन्दन से सजाओ। कण्ठ में शराव (मिट्टी के छोटे पात्र) की माला डालो। मित्रानन्द-राजपुत्र! क्यों इस चाण्डाल के स्पर्श से मुझको अपवित्र कर रहे हो? ____ कालपाश-अरी दुष्टे! कौमुदी! तो तुम्हीं अपने पति के प्रति चाण्डाल द्वारा करणीय कार्य को सम्पन्न करो। (कौमुदी रक्तचन्दन का लेप लगाकर कण्ठ में शरावमाला डाल देती है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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