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________________ ७४ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (कौमुदी सबाष्पमधोमुखी भवति।) कालपाश:--- (विमृश्य) कोऽत्र भोः? (प्रविश्य) वज्राङ्कुरः- एसो म्हि, आणवेदु लायउत्तो । (एषोऽस्मि, आज्ञापयतु राजपुत्रः।) कालपाश:- अरे वज्राङ्गुर ! वादय वध्यपटहम्, उपनय सरासभं श्वपाकम्। जं आणवेदि शामी। (इत्यभिधाय वज्राङ्कुरो निष्क्रान्तः।) (यदाज्ञापयति स्वामी।) (नेपथ्ये दुःश्रवो वध्यपटहध्वनिः।) कालपाश:- वराहतुण्ड! प्रलम्बय तस्करस्य केशान्। सन्दानय भुजौ। (वराहतुण्डस्तथाकरोति।) (कौमुदी तारस्वरं प्रलपति।) (कौमुदी रोती हुई मुख नीचे झुका लेती है।) कालपाश-(सोचकर) अरे! यहाँ कौन है? (प्रवेश कर) वब्राकुर-मैं उपस्थित हूँ। आप आज्ञा दें राजपुत्र? कालपाश-अरे वज्राङ्कर! वध्यपटह बजाओ और चाण्डाल को गर्दभसहित बुलाओ। वनाखर- स्वामी की जैसी आज्ञा। (यह कहकर वज्राङ्कुर निकल जाता है।) (नेपथ्य में वध्यपटह की तीक्ष्ण ध्वनि होती है।) कालपाश- वराहतुण्ड! चोर का केश बाँधकर लटका दो और दोनों भुजाओं को बाँध दो। (वराहतुण्ड वैसा ही करता है।) (कौमुदी ऊँचे स्वर में विलाप करती है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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