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चतुर्थोऽङ्कः
७३ कालपाश:- आभरणकरण्डकादप्यपरं किं नाम चौर्यचिह्नम्? मित्रानन्दः- राजपुत्र ! ममैव द्रविणमत्र करण्डके। कालपाश:-- सर्वमपि राज्ञः पुरतो वक्तव्यम् । मित्रानन्दः- (सदुःखमात्मगतम्) यत् पोतस्य सुवर्ण-मौक्तिकनिधेर्भङ्गो वियोगो निजै
न्मातापितृभिर्विदेशवसतिर्येयं न तद् बाधते। मिथ्या यः पुनरिन्दुशप्रयशसो गोत्रस्य लक्ष्मैकभू
रैकागारिकविप्लवः प्रतिमुहुर्दुःखाकरोत्येष माम्।।१६।। कौमुदी- (सदैन्यं पादौ संस्पृश्य) ताद ! मिल्हेहि मे निरवराह भत्तारं। देहि पइभिक्खं।
(तात! मुश्च मे निरपराधं भर्तारम् । देहि पतिभिक्षाम्।)
कालपाश:- (साक्षेपम्) आः पापे ! तस्करपति! दूरस्थिता ब्रूहि। माऽस्मानुपस्पृश।
कालपाश-आभूषण की टोकरी से बढ़कर चोरी का दूसरा प्रमाण क्या हो सकता है?
मित्रानन्द-राजपुत्र! इस टोकरी में मेरा ही धन है। कालपाश-सब बातें राजा के सम्मुख बतलाना। मित्रानन्द-(दुःखपूर्वक मन ही मन)
स्वर्ण और मोतियों से भरे जहाज का समुद्र में डूब जाना और विदेश में रहते हुए अपने माता-पिता (आदि बन्धुजनों) से वियोग मुझे व्यथित नहीं कर रहा है, किन्तु अपने चन्द्रमासदृश धवल यश वाले गोत्र (वंश) के लिए कलङ्कमात्रस्वरूप चोर होने का मिथ्या आरोप मुझे अत्यधिक व्यथित कर रहा है।।१६।।
कौमुदी-(दीनतापूर्वक चरण छूकर) तात! मेरे निरपराध पति को छोड़ दीजिए। मुझे पतिभिक्षा दे दीजिए।
कालपाश-(क्रोधपूर्वक) अरे पापिनी! तस्करों की साम्राज्ञी! दूर रहकर बात कर। मुझे मत छू।
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