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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (शम्बलकं किमप्यस्ति।)
वराहतुण्ड:- (करण्डिकामुत्पाट्य विमुच्य च कालपाशंप्रति) प्रभूतद्रविणसारभरेण न शक्यते समुत्पाटयितुम्।
कालपाश:- (सोपहासम्) बाले! शम्बलस्य किमियान् भारः? मध्यस्थिता चौर्यं कारयसि?
कौमुदी- ताद! अहं चोरिअं सिविणे वि न पिच्छामि । (तात ! अहं चौर्यं स्वप्रेऽपि न पश्यामि।)
कालपाश:- प्रत्यक्षमपि पश्यन्ती स्वप्ने न किं करिष्यसि? (पुनः सावहित्थम्) दीर्घदंष्ट्र ! विधेहि किमप्यस्य समयोचितमातिथ्यम् ।
(दीर्घदंष्ट्रो यष्टिना प्रणिहन्तुमारभते।)
(कौमुदी सपूत्कारमन्तरा निपतति।) कालपाश:- वनितायां प्रहारः प्रयत्नतो रक्षणीयः।
पयामि।)
कालपाश-(उपहासपूर्वक) बालिके! पाथेय का क्या इतना अधिक भार होता है? मध्यस्थ होकर चोरी करवाती हो?
कौमुदी-तात! मैं तो सपने में भी चोरी नहीं करती हूँ।
कालपाश-प्रत्यक्ष ही (चोरनी) दीख रही हो तो स्वप्न में कैसे नहीं करोगी? (पुन: क्रूरतापूर्वक) दीर्घदंष्ट्र! इसका कुछ समयोचित सत्कार करो।
(दीर्घदंष्ट्र छड़ी से मारना प्रारम्भ कर देता है।)
(कौमुदी चीखती हुई बीच में गिर पड़ती है।) कालपाश-स्त्रियों पर होने वाले प्रहार को यत्नपूर्वक रोकना चाहिए (अर्थात् स्त्रियों पर प्रहार नहीं करना चाहिए)।
मित्रानन्द-राजपुत्र! नष्ट हुई नौका वाला मैं व्यापारी कुछ अवशिष्ट धन को लेकर अपने नगर की तरफ जा रहा हूँ तो वृथा ही तस्कर होने का कलङ्क (आरोप) लगाकर मुझे अपशब्द क्यों कह रहे हो? चोरी का कोई चिह्न (यदि हो, तो उसको) बतलाकर अथवा किसी साक्षी को प्रस्तुत कर तुम चाहो तो पकड़ लो, मार डालो अथवा कैद कर लो।
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