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________________ ७१ चतुर्थोऽङ्कः मित्रानन्द:- प्रिये! उत्तिष्ठोत्तिष्ठ, प्राप्ता राजपदातयः। (उभौ बहिर्भवतः।) (कौमुदी परिधानपटेन करण्डकं पिदधाति।) कालपाश:- (साक्षेपम्) अरे! कस्त्वमसि? मित्रानन्दः- (सकम्पम्) राजपुत्र! पथिकोऽहम्। कालपाश:- इयं वनिता का? मित्रानन्दः- मम सधर्मिणीयम्। कालपाश:– बाले! करण्डिकायां किमस्ति? कौमुदी- (सकम्पम्) संबलयं किं पि अत्यि। (शम्बलकं किमप्यस्ति।) वराहतुण्ड:- (करण्डिकामुत्पाट्य विमुच्य च कालपाशं प्रति) प्रभूतद्रविणसारभरेण न शक्यते समुत्पाटयितुम्। मित्रानन्द-प्रिये! उठो उठो, राजसैनिक आ गये हैं। ___ (दोनों बाहर निकलते हैं।) (कौमुदी साड़ी के आँचल से टोकरी को छुपा लेती है।) कालपाश-(क्रोधपूर्वक) अरे! तुम कौन हो? मित्रानन्द-(काँपते हुए) राजपुत्र! मैं पशिक हूँ। कालपाश- यह स्त्री कौन है? मित्रानन्द-यह मेरी पत्नी है। कालपाश-बालिके! इस टोकरी में क्या है? कौमुदी-(काँपती हुई) कुछ पाथेय (मार्गव्यय) है। वराहतुण्ड-(टोकरी को उठाकर और छोड़कर कालपाश से) अत्यधिक कीमती धन (आभूषणादि) के भार से यह टोकरी सरलता से नहीं उठ रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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