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चतुर्थोऽङ्कः मित्रानन्द:- प्रिये! उत्तिष्ठोत्तिष्ठ, प्राप्ता राजपदातयः।
(उभौ बहिर्भवतः।) (कौमुदी परिधानपटेन करण्डकं पिदधाति।) कालपाश:- (साक्षेपम्) अरे! कस्त्वमसि? मित्रानन्दः- (सकम्पम्) राजपुत्र! पथिकोऽहम्। कालपाश:- इयं वनिता का? मित्रानन्दः- मम सधर्मिणीयम्। कालपाश:– बाले! करण्डिकायां किमस्ति? कौमुदी- (सकम्पम्) संबलयं किं पि अत्यि। (शम्बलकं किमप्यस्ति।)
वराहतुण्ड:- (करण्डिकामुत्पाट्य विमुच्य च कालपाशं प्रति) प्रभूतद्रविणसारभरेण न शक्यते समुत्पाटयितुम्।
मित्रानन्द-प्रिये! उठो उठो, राजसैनिक आ गये हैं।
___ (दोनों बाहर निकलते हैं।) (कौमुदी साड़ी के आँचल से टोकरी को छुपा लेती है।) कालपाश-(क्रोधपूर्वक) अरे! तुम कौन हो? मित्रानन्द-(काँपते हुए) राजपुत्र! मैं पशिक हूँ। कालपाश- यह स्त्री कौन है? मित्रानन्द-यह मेरी पत्नी है। कालपाश-बालिके! इस टोकरी में क्या है? कौमुदी-(काँपती हुई) कुछ पाथेय (मार्गव्यय) है।
वराहतुण्ड-(टोकरी को उठाकर और छोड़कर कालपाश से) अत्यधिक कीमती धन (आभूषणादि) के भार से यह टोकरी सरलता से नहीं उठ रही है।
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