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________________ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (पुनर्विलोक्य) कथमयं पाषाणसन्धिविवरेण निःसृत्य बहिर्गतवान्?। भवतु, तर्हि गर्भगृहावस्थितां भट्टारिकां विलोकयामः। (विलोक्य) प्रिये! पश्य पश्य, नेत्र-श्रोत्र-वरौष्ठ-बाहु-चरण-घ्राणादिभिः प्राणिनां, मन्त्रैः क्लप्तबलिर्वसारसकृतस्नानाऽन्त्रमालार्चिता। कण्ठस्थोरगलिह्यमानबहलप्लीहाङ्गरागा गल द्रक्ताऽऽनरेन्द्रकृत्तिरसनोत्तंसा मृडानी पुरः।।१३।। (कौमुदी उत्तरीयाञ्चलेन नासां पिधाय सजुगुप्सं निध्यायति।) मित्रानन्द:- प्रिये! क्वचिदपि प्रदेशे विमुश्च द्रविणकरण्डकम् । कौमुदी- (करण्डकं विमुच्य) अज्जउत्त ! इआणिं केणावि कारणेण मह सरीरम्मि महंतो उव्वेगो। (आर्यपुत्र! इदानीं केनापि कारणेन मम शरीरे महानुद्वेगः।) मित्रानन्दः- प्रिये! मार्गपरिलङ्घनेनापि तावदतितरां परिश्रान्ताऽसि, भगवती कात्यायनी सामने दिखाई पड़ रही हैं। इन्हें पशुओं के नेत्र, श्रोत्र, प्रशस्त ओष्ठ, भुजा, घ्राण आदि अङ्ग मन्त्रोच्चारपूर्वक बलिरूप में समर्पित हैं, ये चर्बी के रस से गीली अंतड़ियों की माला से सुशोभित हैं, इनके शरीर पर अत्यधिक तिल्लियों (प्लीहा) का अङ्गराग (उबटन), जिन्हें गले में लिपटे हुए साँप चाट रहे हैं, लगा हुआ है और ये टपकते हुए रक्त से अत्यन्त गीले गजचर्म की करधनीरूपी आभूषण से सुशोभित हैं।।१३। (कौमुदी साड़ी के आँचल से नाक बन्द करके घृणापूर्वक देखती है।) मित्रानन्द-प्रिये! धन की टोकरी को किसी स्थान पर रख दो। कौमुदी-(टोकरी रखकर) आर्यपुत्र! इस समय किसी कारणवश मेरा शरीर अत्यधिक काँप रहा है। मित्रानन्द-प्रिये! लम्बी यात्रा करने के कारण भी अत्यधिक थकी हुई हो और अब पुन: कात्यायनी-मन्दिर में भय भी उत्पन्न हो गया, इसीलिए तुम्हारे शरीर में अत्यधिक कम्पन है। अत: किसी अनिष्ट की आशङ्का मत करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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