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________________ ६७ चतुर्थोऽङ्कः गोपुच्छोत्थितदीपमश्मकुहरक्रोडप्रलुप्तोल्वणव्यालं दर्दुरदाहधूमविधुरं कात्यायनीमन्दिरम्।।१२।। (कौमुदी विलोक्य वेपते।) मित्रानन्द:- प्रिये! अन्धकारप्राग्भारदुर्लक्ष्यविषमा चण्डिकायतनप्रदेशपदवी, ततो मत्पृष्ठलना प्रविश । (उभौ मध्यप्रवेशं नाटयतः।) मित्रानन्द:- (कतिचित् पदानि गत्वा विलोक्य च) कथमयमभ्यन्तरे कर-कलितासिधेनुः प्रतिभयतरलेक्षणः कोऽपि पुरुषः? (कौमुदी पलायितुमिच्छति।) __मित्रानन्दः—(उच्चैःस्वरम्)भो महापुरुष! मा भैषीः । इदानीमेव देशान्तरतः समायातो वणिगहम्, न पुनस्तस्करो वा घातको वा, तदास्स्व यथासुखम्। (पुनर्विलोक्य) कथमयं पाषाणसन्धिविवरेण निःसृत्य बहिर्गतवान्?। भवतु, तर्हि गर्भगृहावस्थितां भट्टारिकां विलोकयामः। (विलोक्य) प्रिये! पश्य पश्य, भयङ्कर है। इस मन्दिर के दीपस्तम्भों पर गोपुच्छाकार लौ वाले दीपक जल रहे हैं, पत्थरों (से बनी दीवारों) के छिद्रों में भयङ्कर (विषैले) साँप छिपे हुए हैं और नगाड़ों को तपाने हेतु जलायी गयी आग के धुएँ से यह मलिन (धूमिल) हो गया है।।१२।। (कौमुदी देखकर काँपती है।) मित्रानन्द-प्रिये! इस कात्यायनी-मन्दिर का प्रवेशमार्ग अन्धकाराधिक्य के चलते कठिनता से दिखाई पड़ने के कारण विषम है, अत: मेरी पीठ से सटकर (पीछे-पीछे) प्रवेश करो। (दोनों मध्यभाग में प्रवेश का अभिनय करते हैं।) मित्रानन्द-(कुछ कदम चलकर और देखकर) क्या यह अन्दर हाथ में छुरी लिए भय से चञ्चल दृष्टि वाला कोई व्यक्ति (चोर) है? __(कौमुदी भागना चाहती है।) मित्रानन्द-(उँचे स्वर में) हे महापुरुष! डरो नहीं, मैं तो इसी समय विदेश से आया हुआ व्यापारी हूँ, न कि चोर अथवा हत्यारा, अत: निश्चिन्त रहो। (पुन: देखकर) क्या यह प्रस्तरों के जोड़ के छिद्र से निकलकर बाहर चला गया? अच्छा, तो अब हम गर्भगृह में स्थित भगवती को देखते हैं। (देखकर) प्रिये! देखो देखो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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