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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् ___ द्विजः- अद्य पुनश्चिरप्ररूढचौर्योपद्रुतपौरजनोत्तेजितेन राज्ञा निष्ठुरं निर्भर्त्सतः कालपाशनामा पुरीरक्षकस्तस्करप्रचारं कुतोऽपि विज्ञाय सर्वतो गवेषयितुमारब्धवान् । (इत्यभिधाय द्विजो निष्क्रान्तः।)
मित्रानन्दः- (वामाक्षिस्फुरणमभिनीय सभयम्) साम्प्रतमपायपिशुनं नः किमप्यशकुनम् । तत् तावद् बहिरेव क्वचिदप्यास्महे यावदयं तस्करोपप्लवः क्वचिदपि विश्राम्यति । तदेहि कृतपुरीपरिसरनिवेशं जीर्णपाषाणसञ्चयं कात्यायनीनिलयमनुसरामः।
___(उभौ परिक्रामतः।) मित्रानन्दः- प्रिये! तदिदं पश्य, केतुस्तम्भविलम्बिमुण्डमभितः सान्द्रान्त्रमालाञ्चित
द्वारं शोणितपङ्किलाङ्गणमदमार्जारिभीष्मान्तरम्।
द्विज- आज पुन: बहुत समय से (राज्य में) बढ़ी हुई चोरी से नगरवासियों के अत्यन्त पीड़ित होने के कारण उत्तेजित राजा द्वारा कठोरतापूर्वक फटकारे गये कालपाश नामक नगररक्षक ने कहीं से चोरों के घूमने का समाचार प्राप्त कर सब तरफ उन्हें खोजना प्रारम्भ कर दिया है।
(यह कहकर द्विज निकल जाता है।) . मित्रानन्द- (बायीं आँख के फड़कने का अभिनय कर भयपूर्वक) यह अपशकुन इस समय हमारे किसी अनिष्ट की सूचना दे रहा है। अत: चोरों का उपद्रव कुछ शान्त होने तक हम कहीं बाहर ही ठहरते हैं। तो आओ हम नगर-सीमा पर बने टूटे-फूटे प्रस्तरखण्डों वाले (खण्डहरस्वरूप) कात्यायनी-मन्दिर में चलें।
__ (दोनों घूमते हैं।) मित्रानन्द-प्रिये! देखो इसको,
भगवती कात्यायनी का यह मन्दिर ऐसा है जिसके ध्वज-स्तम्भ के चारों तरफ (बलिपशु के) मुण्ड लटक रहे हैं, द्वार (बलि दिये गये पशुओं की खून से सनी हुई अतएव) चिपचिपी अंतड़ियों की माला से सुशोभित है और आन्तरिक भाग खून के कीचड़ से परिपूर्ण आङ्गन में मस्ती से घूमने वाली बिल्लियों के कारण अत्यन्त
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