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________________ ६९ चतुर्थोऽङ्कः साम्प्रतं पुनः कात्यायनीप्रतिभयमप्यभूत्, ततस्ते वपुषि समुद्वेगः, तन्मा स्म किमपि विरूपमाशङ्किष्ठाः। (नेपथ्ये) एसा चोलपदपद्धई कच्चायणीभवणं पविट्ठा। अओ वलं लायपुत्ते पमाणं । (एषा चौरपदपद्धतिः कात्यायनीभवनं प्रविष्टा। अतः परं राजपुत्रः प्रमाणम् ।) मित्रानन्द:- (आकर्ण्य सभयम्) यथाऽयमानुपदिकस्य व्याहारः तथा जाने योऽयं करकलितासिधेनुनिःसृत्य गतः व्यक्तमसौ चौरः। तदिदानीं तस्करस्थानोपलब्धैरस्माभिः किमनुष्ठेयम्? (कौमुदी कम्पते।) (नेपथ्ये) इहैव पदपद्धतिर्विशति पार्वतीमन्दिरे, तदत्र बहिरास्यतां निभृतवृत्तिभिः पत्तिभिः। (नेपथ्य में) यह चोर का पदचिह्न कात्यायनी-मन्दिर में प्रविष्ट हुआ है और इसके बाद तो राजकुमार ही प्रमाण हैं। मित्रानन्द-(सुनकर भयपूर्वक) जैसा कि (पदचिह्न की पहचान करने वाले) इस आनुपदिक का कथन है, उससे मुझे लगता है कि हाथ में छुरी लिया हुआ जो व्यक्ति निकलकर भाग गया, वह निश्चय ही चोर था। तो इस समय चोर के स्थान पर उपस्थित हमको क्या करना चाहिए? (कौमुदी काँपती है।) (नेपथ्य में) पदचिह्न यहीं से मन्दिर में प्रविष्ट हो रहा है, अत: सैनिकगण छुपकर चुपचाप यहाँ बाहर ही रुके रहें। यही है जीवित पकड़ा गया, दूसरों के घरों एवं महलों को लूटने वाला और धन हड़पने वाला चोर। अत: आप लोग इसको कसकर पकड़ लें।।१४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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