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________________ ६२ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् वीरेषु गणनां पूर्वं परमर्हन्ति योषितः। यास्तृणायाभिमन्यन्ते प्राणान् प्रेमान्धचेतसः।।४।। कौमुदी- किञ्च देसं वयंति विसमं सहति णिव्वं भमंति दुहिआओ। तह वि महिलाण पिम्मं दइयम्मि न सयणवग्गम्मि।।५।। ता अवरं मे भत्तिं निरूवेदु अञ्जउत्तो। (देशं व्रजन्ति विषमं सहन्ते कष्टं भ्राम्यन्ति दुःखिताः। तथापि महिलानां प्रेम दयिते न स्वजनवर्गे।। तदपरां मे भक्तिं निरूपयत्वार्यपुत्रः।) मित्रानन्दः- (सविनयम्) प्रिये कौमुदि! पितृभ्यामाबाल्यादजनि यदनन्तं किमपि ते प्रियं वा श्रेयो वा तदुपनयने कोऽस्मि कृपणः? । इदं सत्यासत्यं पुनरभिदधे प्रीतिमुखरः ___ परं कालादस्माद् भृतकनिरपेक्षस्तव जनः।।६।। स्त्रियाँ, जो प्रेमान्धचित्त होकर अपने प्राणों को तृण के समान तुच्छ समझने लगती हैं, वस्तुत: वीरों में सर्वप्रथम गणना के योग्य हैं।।४।। कौमुदी-इतना ही नहीं वे अपना देश (घर-परिवार) त्याग देती हैं, विषम कष्टों को सहन करती हैं और दुःखी होकर यत्र-तत्र भटकती रहती हैं, तथापि उन महिलाओं का प्रेम अपने पति के प्रति ही होता है, स्वजनों के प्रति नहीं।।५।। अत: आप मेरी किसी अन्य सेवा को देखें। । मित्रानन्द-(विनयपूर्वक) प्रिये कौमुदि! जो अनन्त प्रेम अथवा मङ्गल बाल्यावस्था से ही माता-पिता द्वारा मुझमें उत्पादित है उसे तुम्हारी सेवा में अर्पित करने में मैं कृपण कैसे हो सकता हूँ? तुम्हारे प्रति मेरा जो प्रेमभाव है उसी से मुखरित (वाचाल) होकर मैंने कुछ सत्य-असत्य कहा है, किन्तु इतना निश्चित है कि आज से यह व्यक्ति (मित्रानन्द) तुम्हारी सेवा का कोई पारिश्रमिक नहीं लेगा।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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