SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१ चतुर्थोऽङ्कः (प्रकाशम्) प्रिये कौमुदि! दवीयसो देशान्तरादुपगतवतः सर्वथाऽप्यविज्ञातकुलशील-सम्पदः परोक्षप्रेमग्रन्थेर्मम वणिजो निमित्तं चिरप्ररूढसौहार्दमुद्रोपद्रुतानां बन्यूनामुपहासजनकं स्वदेशपरिहार-पादविहार-शीतवातातपप्रसहनप्रायं क्लेशावेशमतुच्छमुपगच्छन्ती निमीलितनेत्रपत्रा शैलेन्द्रमधिरोहसि, अविद्यमानयानपात्रा महार्णवमवगाहसे, अनासादितजाङ्गुलीप्रसादा पन्नगाधिनाथमुत्कोपयसि । कौमुदी- अज्जउत्त ! कीस इत्तियं पि सयलमहेलाजणसमाणं मम चरिदं निरूविअ विम्हयमुवगदोऽसि? (आर्यपुत्र! कस्मादियदपि सकलमहिलाजनसमानं मम चरितं निरूप्य विस्मयमुपगतोऽसि? ) खणमित्तदिपिअयणपिम्मभरुभिभलाओ महिलाओ। चिरपरिचिए वि मिल्लंति बंधवे एस किर पगिदी।।३।। (क्षणमात्रदृप्रियजनप्रेमभरोद्वितला महिलाः। चिरपरिचितानपि मुञ्चन्ति बान्धवानेषा किल प्रकृतिः।।) मित्रानन्दः- (स्वगतम्) (प्रकट रूप से) प्रिये कौमुदि! दूर देश से आये हुए सर्वथा अज्ञात कुल, शील और सम्पत्ति वाले तथा परोक्ष प्रेमग्रन्थि वाले मुझ व्यापारी के लिए तुम चिरप्ररूढ़ स्नेहभाव से परिपूर्ण बन्धुजनों के लिए उपहासास्पद (निन्दनीय) स्वदेश-त्याग, पैदल चलना, शीत-वायु-गर्मी आदि को सहन करना जैसे कष्टों को तुच्छ समझती हुई अधमुंदी आँखों से पहाड़ पर चढ़ रही हो, विना नौका के ही महासमुद्र में प्रविष्ट हो रही हो और जाङ्गुली देवता का आशीर्वाद न प्राप्त कर सर्पराज को कुपित कर रही हो। कौमुदी-आर्यपुत्र! आप क्यों मेरे आचरण को अन्य समस्त नारियों के समान देखकर भी विस्मित हो रहे हैं? महिलाओं का तो यह स्वभाव ही है कि वे क्षणमात्र भी देखे गये प्रेमीजनों के प्रति अतिप्रेमभाव से विह्वल चित्त वाली होकर अपने चिरपरिचित बन्धुजनों का भी परित्याग कर देती हैं।।३।। मित्रानन्द-(मन ही मन) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy