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________________ . ६० कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (कौमुदी तथा करोति।) मित्रानन्द:- प्रिये!नानादेशोद्भवैर्भग्नयानपात्रैर्वणिग्भिासीकृतस्य विचित्रस्य कनकरत्नाभरणस्य समुद्वहनेन सुचिरमायासितानि बालमृणालकोमलानि तवाङ्गानि । तदहं संवाहयामि । __ कौमुदी- (सलज्जम्) अज्जउत्त ! अलाहि एदिणा विणयपन्भंसेण। न एस कुलवहूआणं पसंसणिञ्जो मग्गो। तुमं पि पायविहारकिलेसेण परिसंतोऽसि, ता अहं ते अंगसंवाहणं करिस्सं । (आर्यपुत्र! अलमेतेन विनयप्रभ्रंशेन। न एष कुलवधूनां प्रशंसनीयो मार्गः। त्वमपि पादविहारक्लेशेन परिश्रान्तोऽसि, तदहं तेऽङ्गसंवाहनं करिष्यामि।) मित्रानन्दः– (साश्चर्यमात्मगतम्) न मे गोत्रं वेद प्रकृतिमपि (नैवाप्यभिजन), स्वभावस्थं किञ्चोपकृतमपि नास्यां किमपि मे। तथाप्येषा बन्धूनमुचदसिताक्षी मम कृते, पुरन्ध्रीणां प्रेमग्रहिलमविचारं खलु मनः।। २।। (कौमुदी वैसा ही करती है।) मित्रानन्द- प्रिये! विभिन्न देशों में उत्पन्न हुए और नष्ट हुई नौका वाले व्यापारियों द्वारा धरोहर के रूप में रखे गये विचित्र स्वर्ण एवं रत्न के आभूषणों को लम्बे समय तक शिर पर वहन करने के कारण तुम्हारे बालमृणाल के समान कोमल अङ्ग थक गये हैं, अत: मैं इनकी मालिश कर देता हूँ। कौमुदी-(लज्जापूर्वक) आर्यपुत्र! इस प्रकार शिष्टता का उल्लङ्घन उचित नहीं। ऐसा करना कुलवधुओं के लिए निन्दनीय है। आप भी पैदल चलने से थक गये हैं, अत: मैं आपके अङ्गों की मालिश करूँगी। मित्रानन्द-(आश्चर्यपूर्वक मन ही मन) न मेरा गोत्र (वंश) जाना, न स्वभाव जाना, न ही मेरे पूर्वजों और कुटुम्बजनों के विषय में कुछ जाना और इस पर मेरा कोई स्वाभाविक उपकार भी नहीं है, फिर भी इस कृष्णाक्षी (कौमुदी) ने मेरे लिए अपने बन्धुजनों का परित्याग कर दिया। महिलाओं का प्रेमासक्त मन वस्तुत: अविचारणीय (समझ से परे) है।।२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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