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||अथ चतुर्थोऽङ्कः।। (ततः प्रविशति मित्रानन्दो मूर्धकृतकरण्डा कौमुदी च।) मित्रानन्दः– (समन्ततोऽवलोक्य) प्राचीनमञ्चति वियत् पृथुशोककोक
कान्ताकपोलपुलकौपयिकं दिनेशः। श्रान्ता इवास्ततटकुट्टिममाश्रयन्ति,
राजीवजीवितहृतो हरिणाङ्कपादाः।।१।। कौमुदी- अज्जउत्त! कित्तिअं अज्ज वि गंतव्वं? (आर्यपुत्र! कियदद्यापि गन्तव्यम्?)
मित्रानन्दः- प्रिये! महत्यपि प्राप्तपारे मार्गोदन्वति मा स्म विषादनिषादं स्पृशः। प्राप्ता एव सिंहलद्वीपराजधानीपरिसरभुवम्। यदि च रजनीचरणचक्रमणेनातिचिरं परिश्रान्ताऽसि तदानीमवतार्य शिरसः करण्डमनेकस्तबककदम्बकखर्वशाखस्य क्रमुकखण्डस्यास्य निरपायासुच्छायासु विनोदय क्षणं प्ररूढगाढस्वेदं मार्गखेदम्।
चतुर्थ अङ्क (तत्पश्चात् मित्रानन्द और सिर पर टोकरी रखी हुई कौमुदी प्रवेश करते हैं।)
मित्रानन्द-(चारों तरफ देखकर)
अत्यधिक शोकाकुला चक्रवाकी (अथवा अत्यधिक शोक से गुलाबी गालों वाली तरुणी) के कपोलों को रोमाञ्चित करने वाले सूर्यदेव पूर्वदिशा को सुशोभित कर रहे हैं और कमल के जीवन का हरण करने वाले श्रान्त हुए से चन्द्रदेव अस्ताचलरूपी कुटिया का आश्रयण कर रहे (अस्त हो रहे) हैं।।१।।
कौमुदी-आर्यपुत्र! अब और कितनी दूर जाना है?
मित्रानन्द-प्रिये! विशाल महासागरीय मार्ग को पार कर अब विशेष दुःखी मत हो। हम सिंहलद्वीप की राजधानी की सीमा में प्रवेश करने ही वाले हैं। यदि तुम रात में पैदल चलने से अत्यधिक थक गयी हो, तो सिर से टोकरी उतार कर अनेक स्तबक (गुच्छ) समूह वाले सुपारी के वृक्षों की प्रगाढ़ छाया में क्षणभर विश्राम कर यात्रा की पसीना बहा देने वाली क्लान्ति दूर कर लो।
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