SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् अस्ताद्रिमाश्रयन्तं प्रदोषसंहृतसमस्तवसुसारम्। वोढारं कुलवनितेव मित्रमनुसरति दिनलक्ष्मीः।। २२।। गजपाद:- (साशङ्कमात्मगतम्) कथमयंबटुः सन्ध्यासमयव्यावर्णनाव्याजेन प्रकृष्टदोषघोरघोणापहृतद्रविणसारेण सार्थवाहकुमारेण सह वत्साया गमनं सूचयति? गन्धमूषिका– (पुरोधसं प्रति) रजनिरिदानीम्, पर्णशालाभ्यन्तरमुपैतु वत्सा, पश्यतु अपरसार्थवाहप्रतिपत्त्या जामातरम्। कुलपति:- वयमपि तर्हि प्रादोषिकी सन्ध्यामनुष्ठातुं प्रतिष्ठामहे। (इति निष्क्रान्ताः सर्वे।) ।। तृतीयोऽङ्कः समाप्तः।। दिनलक्ष्मी प्रदोष से प्रतिबन्धित किरणसमूह वाले एवं अस्ताचल का आश्रयण करते (डूबते) हुए सूर्य का कुलवधू की भाँति अनुसरण कर रही है।।२२।। गजपाद- (शङ्कित होकर मन में) क्या यह बालक (ब्रह्मचारी) सन्ध्याकाल के वर्णन के बहाने दष्ट घोरघोण द्वारा अपहत सम्पत्ति वाले सार्थवाहकुमार के साथ पुत्री कौमुदी के प्रस्थान की सूचना दे रहा है? गन्धमूषिका-(पुरोहित से) अब रात हो गयी है, आप पुत्री व जामाता को पर्णशाला के अन्दर ले जाइए और जामाता को अन्य सार्थवाहों जैसी दृष्टि से देखिए, अर्थात् जामाता के साथ भी वैसा ही व्यवहार कीजिए जो अन्य सार्थवाहों के साथ किया जाता है। कुलपति-हम भी अब प्रदोषकालीन सन्ध्याव्रत का अनुष्ठान करने हेतु जा रहे हैं। (सभी मञ्च से निकल जाते हैं।) तृतीय अङ्क समाप्त।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy