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तृतीयोऽङ्कः सर्वेऽपि किं व्रतभृतः सुखमासते ते?
किञ्चाद्य मां किमसि संस्मृतवानकस्मात्?।।२०।। कुलपति:- (सादरम्) हालाहलहरी विद्यां वन्द्यां देवैः सदानवैः।
एतस्मै देवि! जामात्रे प्रसीद प्रतिपादय।।२१।। (देवता मित्रानन्दस्य शिरसि दक्षिणभुजं निधाय कर्णे-एवमेव।) मित्रानन्दः– महाप्रसादः (इत्यभिधाय प्रणमति।) देवता- मुनीन्द्र! व्रजामो वयम्। कुलपतिः– निष्प्रत्यूहास्त्रिदशसम्पदो भूयासुः।
(देवता तिरोधत्ते।)
(नेपथ्ये)
आश्रम के सभी तपस्विजन सुखपूर्वक रह रहे हैं? और आज आपने अकस्मात् किस कारण मेरा स्मरण किया है? ।।२०।।
कुलपति-(आदरपूर्वक)
हे देवि! जामाता को देवों और दानवों द्वारा वन्दनीया विषहारिणी विद्या का उपदेश देने की कृपा करें।।२१।। (देवता मित्रानन्द के सिर पर दाहिना हाथ रखकर कान में मन्त्रोपदेश
देती हैं।) मित्रानन्द- यह तो महान् प्रसाद है (यह कहकर देवता को प्रणाम करता है)।
देवता- मुनिवर! अब मैं प्रस्थान करती हूँ। कुलपति-देवताओं का निर्विघ्न अभ्युदय हो।
(देवता अन्तर्हिते हो जाती हैं।)
(नेपथ्य में)
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