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________________ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् कुलपति:- (विमृश्य सविषादम्) मर्कटवर्ण! पवित्रय पुष्पोपहारेण ध्यानवेदीम्। (मर्कटवर्णस्तथा करोति।) (कुलपति: रसनाबन्धमाधाय ध्यानं नाटयति।) गजपाद:- (कर्णं दत्वा) मञ्जीराणि यथा रणन्ति, बहलः कोलाहलः खेचरी__वातस्यैष यथा, यथा च वियति ज्योतिः समुज्जृम्भते। दिव्यः कोऽपि निरर्गलः परिमलः काष्ठाः स्तृणीते यथा, व्यक्तं हन्त ! तथोपसर्पति महीं श्रीजाङ्गुलीदेवता।।१९।। कुलपति:- (सप्रश्रयम्) स्वस्ति देवतायै। देवता- (सविनयम्) श्रीमन्मुनीश्वर! शिवप्रतिभूः समाधे चापल्यविप्लवमपास्थत कच्चिदुच्चैः?। कुलपति-(सोचकर खेदपूर्वक) मर्कटवर्ण! ध्यानवेदी को पुष्पोपहार से पवित्र करो। (मर्कटवर्ण वैसा ही करता है।) (कुलपति मेखला कसकर ध्यान करने का अभिनय करते हैं।) गजपाद-(कान लगाकर) जिस प्रकार चारों तरफ मञ्जीरध्वनि गँज रही है, पक्षिसमूह अत्यधिक कलरव कर रहा है, आकाश में सर्वत्र प्रकाश फैल रहा है और कोई दिव्य एवं अबाध सुगन्धि दिशाओं में व्याप्त हो रही है, उससे स्पष्ट है कि जाङ्गुली देवता (विष देवता) पृथ्वी पर अवतरित हो रही हैं।।१९।। कुलपति-(आदरपूर्वक) देवता का अभिवादन हो। देवता-(विनयपूर्वक) हे (पृथ्वी पर) शिव के प्रतिनिधिस्वरूप मुनिवर! यदि आपकी समाधि में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित हो गया हो तो स्पष्ट स्वरों में कहें। क्या आपके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002080
Book TitleKaumudimitranandrupakam
Original Sutra AuthorRamchandrasuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Culture
File Size8 MB
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