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तृतीयोऽङ्कः
कुलपतिः - (सावहेलम् )
प्रियां प्राणेभ्योऽपि त्वयि विसृजतो वत्स! तनयामदेयं किं नाम स्वमपि विजिहासोः कुलपते: ? । किमेतैस्तैः पल्लीजनसमुचितैरक्षरलवै
रसाध्यं विश्वानामपि किमपि वस्तु स्मर ततः ।। १७ ।।
गजपादः
अल्पत्वं च महत्त्वं च वस्तुनोऽर्थित्वमीक्षते ।
क्रव्ये तरक्षुः श्रद्धालुर्न कव्ये त्रिदशांपतिः ।। १८ ।।
गन्धमूषिका — भगवन्! यदभिरुचितं जामात्रे तदस्तु ।
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पुरोधा :- मुनीन्द्र ! नार्हसि पवित्रेऽस्मिन् पाणिमोचनापर्वणि जामातुर्वैमनस्यमाधातुम् ।
कुलपति - ( उपेक्षाभाव से )
हे पुत्र ! प्राणों से भी अधिक प्रिय पुत्री को तुम्हारे लिए त्याग देने वाले एवं स्वयं को भी अर्पण कर देने में समर्थ कुलपति के लिए अदेय क्या है ? अर्थात् कुछ भी नहीं, किन्तु ग्रामीण (तुच्छ) जनों के योग्य इन दो-चार अक्षर (के मन्त्र) से क्या (लाभ) ? अत: तुम देवताओं के लिए भी असाध्य किसी वस्तु का स्मरण ( याचना ) करो ।। १७ ।।
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गजपाद - किसी भी वस्तु की लघुता या महत्ता उसकी आवश्यकता (इच्छा) पर निर्भर है। सिंह क्रव्य (कच्चे मांस) को बहुत चाहता है (अत: उसके लिए कच्चे मांस की महत्ता है), किन्तु देवराज इन्द्र कव्य ( पितरों को समर्पित होने वाले भक्ष्य ) के इच्छुक नहीं है (अतः पितरों के लिए वह कव्य महत्त्वपूर्ण होते हुए भी इन्द्र के लिए तुच्छ ही है) ।। १८ ।।
गन्धमूषिका - भगवन् ! जामाता को जो प्रिय है, वही हो ।
पुरोहित - हे मुनिवर ! इस पवित्र विवाहोत्सव में जामाता को दुःखी करना उचित नहीं ।
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