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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् दइएहिं चेअ परम्मुहेहिं मयणग्गिभिंभलमणाओ।
कारिज्जते कुलबालिआउ गहिलाई कज्जाइं।।१५।। (दयितैः एव पराङ्मुखैर्मदनाग्निविह्वलमनसः। कार्यन्ते कुलबालिकाः प्रथिलानि कार्याणि।।)
गन्धमूषिका- ततस्तथाकथञ्चिदस्या अभिमुखो भूयाः यथेयं कौलीनं किमपि नाऽऽचरति।
(मित्रानन्दः सलज्जमधोमुखो भवति।) कुलपति:
जामातः! प्रतिपादिता शुभशतप्रागल्भ्यलभ्या स्वयं, ___ तुभ्यं स्वर्गनितम्बिनीप्रतिनिधिः पुत्री मया कौमुदी। पित्रोनेत्रमहोत्सवे करतलव्यामोचनापर्वणि,
स्वैरं वस्तु यदिष्टमस्ति भवतस्तत्किञ्चिदुच्चैर्वृणु।।१६।। मित्रानन्दः- (अञ्जलिं बद्ध्वा) विषापहारमन्त्रोपदेशेन प्रसीद।
कामाग्नि से विह्वल चित्त वाली कुलबालिकाओं से जब प्रियतम विमुख हो जाते हैं, तभी वे अनुचित कार्य करने लग जाती हैं।।१५।।
गन्यमूषिका-अत: किसी प्रकार इसके अभिमुख हो जाओ, जिससे यह कोई लोकविरुद्ध आचरण न करे।
(मित्रानन्द लज्जा से मुख झुका लेता है।) कुलपति
हे जमाता! सैकड़ों पुण्यों के प्रभाव से प्राप्त एवं स्वर्ग की अप्सराओं की प्रतिनिधिस्वरूपा (अतीव सुन्दरी) पुत्री कौमुदी मैंने स्वयं आपको प्रदान कर दी। माता-पिता के नेत्रों के लिए महोत्सव के समान अत्यानन्ददायक इस पाणिग्रहणसंस्कार के अवसर पर यदि आपकी कोई मनोवाञ्छित वस्तु हो, तो स्पष्ट कहिए।।१६।।
मित्रानन्द-(हाथ जोड़कर) विषापहरण मन्त्र का उपदेश देने की कृपा करें।
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