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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
(ततः प्रविशन्ति यथानिर्दिष्टाः सर्वे।) कुलपतिः- (गन्धमूषिकां प्रति) आयें! सवरां विवाहवेदीमधिरूढां कौमुदीं वत्सां विलोक्य प्राप्तमस्माभिर्जन्मनस्तपःकर्मणश्च फलम्।
गन्धमूषिका– (सास्रम्) मदीयेन तपसा सतीत्वेन च चिरमविधवा भवतु वत्सा । गजपाद:- वत्से! प्रतिगृहाण शिरसा पितृष्वसुराशिषम्।
(कौमुदी शिरो नमयति।) पुरोधा:- (कुलपतिं प्रति) अर्घदानपूर्वकं प्रयच्छ पुत्री जामात्रे। कुलपति:- कोऽत्र भोः? पाद्यं पाद्यम्, अर्थोऽर्घः।
___ (प्रविश्य तुन्दिलः सर्वमुपनयति।) कुलपति:- (सात्रं पादौ प्रक्षाल्यार्घमुपनयति। पुन: सगद्गदम्) वत्स मित्रानन्द! प्रतिगृहाणास्मत्कुटुम्बदृष्टिचकोरीकौमुदीं पुत्री कौमुदीम्।
(तत्पश्चात् यथानिर्दिष्ट सभी प्रवेश करते हैं।) कुलपति-(गन्धमूषिका से) आर्ये! वर के साथ विवाहवेदी पर आरूढ़ पुत्री कौमुदी को देखकर हमारे जन्म और तप:कर्म सफल हो गये।
गन्धमूषिका-(आँसू बहाती हुई) मेरी तपस्या एवं सतीत्व के प्रभाव से तुमको चिरकाल तक पति का साथ प्राप्त हो अर्थात् तुम सौभाग्यवती रहो। गजपाद-पुत्रि! शिर झुकाकर बुआ का आशीर्वाद ग्रहण करो।
(कौमुदी शिर झुकाती है।) पुरोहित-(कुलपति से) अर्घ प्रदान करके पुत्री को जामाता को प्रदान करें। कुलपति-अरे! यहाँ कौन है? पादोदक लाओ, पादोदक, अर्घ लाओ, अर्घ।
(तुन्दिल प्रवेश करके सब सामग्री लाता है।) कुलपति-(आँसू बहाते हुए चरण धोकर अर्घ प्रदान करता है। पुन: गद्गद स्वर में) पुत्र मित्रानन्द! हमारे कुटुम्बजनों की दृष्टिरूपिणी चकोरी के लिए चन्द्रिका के समान (अतिप्रिया) पुत्री कौमुदी का ग्रहण करो।
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