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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
(नेपथ्ये) हंहो बटवः! प्रगुणितः सर्वोऽपि विवाहमङ्गलविधिः। समर्थितकौतुककृत्यं च विवाहवेदीमधिरूढं वधूवरम्?
कौमुदी- कथमेस तादो जंपेदि? (कथमेष तातः जल्पति?)
कुन्दलता- अज्जे! वच्च तुमं कोउअमंगलमणुभवितुं।(पुनर्मित्रानन्दं प्रति) तुम्हे वि गच्छध। (आर्ये! व्रज त्वं कौतुकमङ्गलमनुभवितुम्। यूयमपि गच्छत।)
(कौमुदी-मित्रानन्द-मैत्रेया: निष्क्रान्ताः।)
(ततः प्रविशति कुलपतिर्गजपादश्च।) कुलपति:- (सनिर्वेदम्) प्रपात्य दन्तानुपनीय जाड्यं,
निहत्य सन्धिस्थलसौष्ठवं च। जरा पुनः शैशवमाततान, तथाप्यपायस्पृहयालुचेताः।।१४।।
(नेपथ्य में) अरे बालको! विवाहसम्बन्धी सभी माङ्गलिक अनुष्ठानों के सम्पादन की तैयारी हो गयी? और वरवधू कौतुकक्रीड़ा सम्पन्न करके विवाह-वेदी पर बैठ गये?
कौमुदी- क्या ये पिताजी बोल रहे हैं? .
कुन्दलता-आयें! तुम कौतुकविधि (हल्दी-चन्दन-लेपनादि कार्य) सम्पन्न करवाने हेतु जावो। (पुनः मित्रानन्द से) आप भी जायें।
(कौमुदी, मित्रानन्द और मैत्रेय निकल जाते हैं।)
(तत्पश्चात् कुलपति और गजपाद प्रवेश करते हैं।) कुलपति- (वैराग्यपूर्वक)
वृद्धावस्था ने दाँतों को गिराकर, जड़ता लाकर और सन्धिस्थलों के सौष्ठव को नष्ट कर मानो शरीर में पुन: शिशुत्व का सञ्चार कर दिया है, फिर भी मनुष्य दुष्कर्मों में ही प्रवृत्त रहता है।।१४।।
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