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तृतीयोऽङ्कः कुन्दलता- सत्यवाह! तुम्भेहिं अहं सुमरिदव्या। अहं खुरयणकूडपव्ययाहिंतो कोमुईनेहेण इथ समागदा वट्टामि।
(सार्थवाह! युष्माभिरहं स्मर्तव्या। अहं खलु रत्नकूटपर्वतात् कौमुदीस्नेहेनात्र समागता वत्तें)।
मैत्रेयः- (विहस्य) भद्रे! अहमपि त्वया कदाचिदुपलक्षणीयः। कौमुदी- (मित्रानन्दं प्रति) अत्थि तादस्स अणुभूदपभावो विसावहारमंतो। (अस्ति तातस्यानुभूतप्रभावो विषापहारमन्त्रः)। मित्रानन्द:- ततः किम्? कौमुदी– सो पाणिमोअणापव्वणि अत्थिदव्यो । (स पाणिमोचनापर्वणि अर्थयितव्यः।) मैत्रेय:- आर्य! सरलाऽसि। योऽस्मा जिघांसति सकिं मन्त्रमुपनयति? कौमुदी- पेरन्तमारणनिच्छओ सव्वं पि तादो अणुहिस्सदि। (पर्यन्तमारणनिश्चयः सर्वमपि तातोऽनुष्ठास्यति।)
कुन्दलता-सार्थवाह! आप लोग मुझे अवश्य याद रखियेगा। मैं तो कौमुदी से स्नेह के कारण रत्नकूट पर्वत से यहाँ तक आ गयी हूँ।
मैत्रेय-(हँस कर) भद्रे! तुम कभी मुझे भी देख लिया करो।
कौमुदी-(मित्रानन्द से) पिताजी विष दूर करने वाला प्रभावशाली मन्त्र जानते हैं।
मित्रानन्द-उससे क्या? कौमुदी-उसे आप विदाई के अवसर पर माँग लीजिएगा।
मैत्रेय-आयें! तुम भोली हो। जो हमको मारना चाहता है, वह मन्त्र की शिक्षा भला क्या देगा?
कौमुदी-वध का निश्चय करने से पहले तक पिताजी सब कुछ करेंगे।
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