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लुप्त-सा हो गया किन्तु पूर्ण नहीं, अब भी वह शेष है। अंगों और उपांगों की मुख्यतः जो तीन बार आगम वाचनाएं हुई, उसमें मौलिक रूप अवश्य बदला है। उसमें उत्तरवर्ती घटनाओं तथा विचारणाओं का समावेश भी जरूर हुआ है। स्थानांग में सात निह्नवों और नौ गणों का उल्लेख इस बात को स्पष्ट करता है।२२ फिर भी अंगों का अधिकांश भाग मौलिक है। भाषा और शैली की दृष्टि से भी प्राचीन है। 'आयार' रचना शैली की दृष्टि से शेष सब अंगों से भिन्न है। अतः आगम का मौलिक रूप आज भी विद्यमान है। परन्तु दिगम्बर परम्परा वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष के बाद आगम का मौलिक स्वरूप नष्ट सा मानती है।
इन आचार्यों ने आगम-संकलना का महत्त्वपूर्ण कार्य करके आगमों की सुरक्षा की।
आचार्य जम्बू के वीर निर्वाण ६४ (वि. पूर्व ४०६) से श्वेताम्बर व दिगम्बर सम्प्रदाय के आचार्यों की नाम परंपरा विभक्त हो गई। श्वेताम्बर परम्परा में प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, संभूतिविजय, भद्रबाहु और स्थूलभद्र श्रुतकेवली माने जाते हैं, जब कि दिगम्बर परम्परानुसार विष्णु, नन्दीमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु श्रुतकेवली हैं। इन दोनों परम्पराओं में भद्रबाहु को मुख्य माना गया है।२३ इन आचार्यों का कालमान १६२ वर्ष का है और श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जम्बू के बाद प्रभव से भद्रबाहु तक का कालमान १७० वर्ष का है। इन दोनों में आठ वर्ष का अंतर हैं किन्तु भद्रबाहु के पास सम्पूर्ण द्वादशांगी सुरक्षित थी, ऐसे दोनों सम्प्रदायें एक स्वर से स्वीकार करती है। वीर निर्वाण के १७० वर्ष बाद भद्रबाहु का स्वर्गवास हुआ। आचार्य जम्बू के बाद दस बातों का विच्छेद हो गया२४ और आचार्य भद्रबाहु के बाद श्रुत धारा क्षीण होने लगी। इसका प्रमुख कारण उस युग का द्वादशवर्षीय दुष्काल था। अतएव भद्रबाहु के स्वर्गस्थ होने पर उसी समय अर्थ की दृष्टि से अन्तिम चार पूर्वो का विच्छेद हो गया और शब्द की दृष्टि से अन्तिम चार पूर्व स्थूलभद्र की मृत्यु के बाद (वी. नि. २१६) विच्छिन्न हुये।२५ इसके बाद दस पूर्वो की परम्परा आर्यवज्र तक चली। दसपूर्वधरों की दस ही संख्या है-२६१) महागिरि, २) सुहस्ती, ३) गुणसुन्दर, ४) कालकाचार्य, ५) स्कन्दिलाचार्य, ६) रेवतिमित्र, ७) मंग, ८) धर्म, ९) चन्द्रगुप्त और १०) आर्य-वज्र। अन्तिम दस पूर्वधर आर्यवज्र का स्वर्गवास वीर निर्वाण के ५७१ माना जाता है और कहीं-कहीं ५८४ भी।२७ उसी समय दसवा पूर्व विच्छिन्न हो गया। दिगम्बर परम्परा के अनुसार दशपूर्व की ज्ञान सम्पदा वी. नि. १८३ वर्ष तक सुरक्षित रही। धर्मसेन उनके अन्तिम दशपूर्वधर थे।
श्वेताम्बर परम्परानुसार आर्य रक्षित नौपूर्व पूर्ण और दशम पूर्व के आधे भाग के ज्ञाता थे। उनका शिष्य दुर्बलिकापुष्यमित्र नौ पूर्व का ज्ञाता था। उन दोनों की मृत्यु के (क्रमशः वीर नि. ५९२, वीर नि. ६०४ अथवा ६१७) पश्चात् साढे नौ पूर्व और नौ
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ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
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