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________________ पूर्व के कोई भी ज्ञाता नहीं रहे। देवर्द्धिगणी एक पूर्व के ज्ञाता माने जाते हैं। इस प्रकार वीर निर्वाण के १००० वर्ष तक पूर्व ज्ञान की परंपरा सुरक्षित रही। वीर निर्वाण के १००० वर्ष के बाद पूर्व ज्ञान का विच्छेद हो गया । २८ दिगम्बर परम्परानुसार वीर निर्वाण के ६२ वर्ष तक केवल ज्ञान रहा। अन्तिम केवली जम्बूस्वामी हुए। उसके पश्चात् १०० वर्ष तक चौदह पूर्वो का ज्ञान रहा। भद्रबाहु के पश्चात् १८३ वर्ष तक दसपूर्वधर रहे। उनके पश्चात् ग्यारह अंगों की परम्परा २२० वर्ष तक चली। उनके अन्तिम अध्येता ध्रुवसेन हुए । उनके पश्चात् एक अंग (आयार) का अध्ययन ११८ वर्ष तक चला। इनके अन्तिम अधिकारी लोहार्य हुए। वीर निर्वाण ६८२ के पश्चात् आगम साहित्य सर्वथा लुप्त हो गया । २९ किन्तु धवला टीका और तिलोयपण्णत्ति को देखने से स्पष्ट होता है कि वे भी अंगों का पूर्णतः विच्छेद नहीं मानते, बल्कि 'अंग पूर्व के एकदेशधर' के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। ३० अतः श्रीधरसेनाचार्य ने जिनवाणी का सर्वथा अभाव न हो जाय इस दृष्टि से पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा श्रुतज्ञान को लिपिबद्ध कराया । ३१ वर्तमान में जो आगम उपलब्ध हैं, वे सब देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण की वाचना के हैं। अंगों के कर्ता गणधर, अंग बाह्य श्रुत के कर्ता स्थविर और उन सबका संकलन एवं सम्पादन कर्ता देवर्द्धिगणी हैं। अतः वर्तमान आगमों के कर्ता वे ही माने जाते हैं । ३२ उनके पश्चात् वर्तमान स्थित आगमों में संशोधन, परिवर्धन एवं परिवर्तन नहीं हुआ। अगले पृष्ठों पर आगम साहित्य का वर्णन ऊपर बताये हुए बत्तीस आगम अनुसार ही होगा। ध्यान संबंधी मूलभूत आगम साहित्य १२ अंग १) आयार :- यह द्वादशांगी का प्रथम अंग है। जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, उन सब ने सर्वप्रथम आचारांग का उपदेश दिया है। वर्तमान काल में जो तीर्थंकर (विहरमान ) महाविदेह क्षेत्र में विद्यमान हैं, वे भी अपने शासन काल में सर्वप्रथम इसका प्रवचन देंगे। और गणधर भी इसी क्रम से अंग सूत्रों को ग्रथित करते हैं। निर्युक्तिकार का कथन है कि मुक्ति का अव्याबाध सुख प्राप्त करने का मूल आचार है। उन्होंने प्रश्नोत्तर के रूप में स्पष्ट किया है कि अंग सूत्रों का सार क्या है? आचार। आचार का सार क्या है? अनुयोग-अर्थ । अनुयोग का सार क्या है? प्ररूपणा करना । प्ररूपणा का सार क्या है? सम्यक् चारित्र को स्वीकार करना । चारित्र का सार क्या है ? निर्वाण पद की प्राप्ति । निर्वाण पद की प्राप्ति का सार क्या है? अक्षय सुख को प्राप्त करना । ज्ञान और क्रिया की समन्वित साधना ही मोक्ष है। अतः मुक्ति के लिए सबसे प्रथम जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only ३९ www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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