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आवश्यकता चारित्र की है। इसी कारण सभी तीर्थंकरों ने तीर्थ की स्थापना करते समय सर्व प्रथम आचारांग का उपदेश दिया है। इसलिए द्वादशांगी में इसे प्रथम स्थान दिया है।
प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्याय और द्वितीय के १६ अध्ययन हैं, तथा पाँच चूलिकाएं हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का सम्यक् वर्णन है। इसके नौवे अध्याय में ध्यानयोगी भगवान महावीर की साधना का दिग्दर्शन किया है। उनकी सम्पूर्ण साधना पद्धति ध्यानयोगमय ही थी। इसमें ध्यानयोग की प्रक्रिया स्पष्ट नहीं बताई गई है किन्तु इसका निरीक्षण परीक्षण करने के बाद हमारी अल्पज्ञ बुद्धि इस धारणा पर पहुँचती है कि पहले निरीक्षणात्मक पद्धति का प्रयोग किया गया है। बाद में परीक्षणात्मक और अन्त में प्रयोगात्मक पद्धति द्वारा ध्यान के पर्यायवाची शब्द समाधि और अप्रमाद शब्द द्वारा ध्यान का स्वरूप स्पष्ट किया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चारित्राचार का वर्णन विस्तृत रूप से स्पष्ट किया है। चतुर्थ चूलिका में ध्यान साधना में पोषक पाँच महाव्रत एवं उनकी भावनाओं का उल्लेख है। तथा ध्यान में बाधक तत्त्वों (ममत्व, आरंभ, परिग्रह व प्रमाद) का भी उल्लेख है।
दोनों श्रुतस्कन्धों में २५ अध्ययन और ८५ उद्देश्यक है। किन्तु प्रथम श्रुतस्कन्ध के 'महापरिज्ञा' नामक अध्ययन लुप्त होने से २५ अध्ययन और ७८ उद्देश्यक ही हैं।
ध्यान का मूल केन्द्रबिन्दु 'रत्नत्रय' की साधना है। अतः प्रथम अंग में संयमी साधक जीवन के लिये आभ्यन्तर और बाह्य शुद्धि का साधन आचार है। आचार शुद्धि द्वारा ही ध्यान सिद्ध किया जा सकता है।
यह ग्रंथ लुधियाना, उज्जैन आदि स्थानों से प्रकाशित है।
२) सूयगड:- द्वादशांगी में यह दूसरा अंग सूत्र है। इसके भी दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध के ७ अध्याय हैं। इसमें स्वमत परमत, जीवादि नौ तत्त्वों के विश्लेषण के साथ ३६३ पाखण्डियों के मत का विवेचन है।
प्रथम श्रुतस्कन्ध के दशम अध्याय में समाधि का वर्णन है। समाधि के चार प्रकार है- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इनमें भाव समाधि पर अधिक जोर दिया गया है। एकादश अध्याय में भाव समाधि के लिए चार मार्ग- ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, बताये हैं। इन्हीं के द्वारा ही साधक धर्मध्यान की साधना कर सकता है। धर्मध्यान की साधना में 'परिग्रह' को बाधक बताया है। वह द्रव्य - (बाह्य) (क्षेत्र, वास्तु, धन-धान्य, ज्ञातिजन, मित्र, वाहन, शयन, आसन, दास, दासी इन पर मूर्छा भाव रखना ये दस हैं) और भाव
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ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
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