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(आभ्यन्तर) (यह चौदह प्रकार का है - क्रोध, मान, माया, लोभ, स्नेह, द्वेष, मिथ्यात्व, कामाचार, संयम में अरुचि, असंयम में रुचि, विकारी भाव, हास्य, शोक, भय और घृणा) रूप से दो प्रकार का है। इसमें ध्यान विषयक सहायक तत्त्वों (गुरु आज्ञा-सेवा का पालन, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि) का भी विवेचन है।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ध्यान साधक के मूलगुण एवं उत्तरगुण में आने वाले हिंसादि विघ्नों का विवेचन है। अशुभ ध्यान से संसार वृद्धि होती है। इसलिए षट्जीवनिकाय जीवों की हिंसा का निषेध किया है।
प्रस्तुत अंग में ध्यानयोग, समाधियोग और भावनायोग शब्द का प्रयोग मिलता है। इसके पर्यायवाची संवर, तप, समाधि और धर्म आदि शब्द है। इस प्रकार इस अंग सूत्र में ध्यान का विशिष्ट स्वरूप स्पष्ट होता है।
प्रथम अंग सूत्र में मैं कौन था? इस स्वरूप का चिन्तन है तो द्वितीय अग सूत्र में बन्ध और मोक्ष की चर्चा है। अशुभ ध्यान से बन्ध होता है और शुभ ध्यान से मोक्ष मिलता है। यही स्वरूप इसमें स्पष्ट किया है।
यह ग्रंथ सैलाना से प्रकाशित है।
३) ठाण :- यह द्वादशांगी का तीसरा अंग है। इसमें एक अध्याय से लेकर दम् अध्याय तक विभिन्न दृष्टियों से पदार्थों का विवेचन है। सामान्यगणना से इसमें कम-सेकम १२०० विषयों का वर्गीकरण है और भेद प्रभेद की दृष्टि से लाखों विषयों का स्पष्टीकरण हैं, इसके चतुर्थ अध्ययन में ध्यान के भेद, लक्षण, आलम्बन, अनुप्रेक्षा के रूप में विस्तृत वर्णन मिलता है। प्रथम दो अंगों की अपेक्षा इस तीसरे अंग में ही ध्यान का विशेष वर्णन मिलता है। चार प्रकार के ध्यान में से कौन-सा ध्यान साधक के लिए सहायक हो सकता है? यह भी विस्तृत रूप से वर्णित है।
प्रस्तुत आगम लुधियाना से प्रकाशित है।
४) समवाय :- स्थानांग सत्र की तरह इसमें भी संख्या की दृष्टि से वस्तु का निरूपण किया गया है। संख्या क्रम से पाताल, पृथ्वी, आकाश - तीनों लोक में विद्यमान जीवादि समस्त तत्त्वों का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से लेकर कोटानुकोटिसंख्या तक के विषयों का संकलन है। इसमें स्थानांगसत्र में वर्णित आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्लध्यान का नाम निर्देश किया है और धर्मध्यान के चार भेद में से संस्थान विचय धर्मध्यान का विस्तृत वर्णन है।
५) विवाहपण्णती :- इसे व्याख्याप्रज्ञप्ति और भगवती भी कहते हैं। अन्य ग्रंथों
जैन साधना पद्धति में ध्यान योग
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