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________________ १०) पण्हावागरणाई १०) पुफियाओ (पुष्पिकाः) ११) विवागसुत्तं ११) पुष्पचूलाओ (पुष्पचूलाः) १२) दृष्टिवाद (विच्छेद हो गया) १२) वण्हिदसाओ (वृष्णिदशाः) ४ मूल- १) दशवैकालिक,२) उत्तराध्ययन, ३) अनुयोगद्वार और ४) नन्दीसूत्र। ४ छेद- १) निशीथ, २) व्यवहार, ३) बृहत्कल्प और ४) दशाश्रुतस्कन्ध। ११ + १२ + ४ + ४ = ३१ और ३२ वा आवश्यक सूत्र है। जैन दर्शन के अनुसार चौबीस तीर्थकर माने जाते हैं। उनमें प्रथम ऋषभदेव और अन्तिम महावीर स्वामी हैं। भगवान महावीर की वाणी प्रत्यक्ष श्रवण करके त्रिपदी के आधार पर गणधरों ने आगम-वाचना का कार्य किया। किन्तु वीर निर्वाण के बाद उस आगम सम्पदा का उत्तरोत्तर -हास होता गया। इन विचारों को श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा भिन्न-भिन्न रूप से मानती है। श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता है कि समय-समय पर द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष के कारण बहुश्रुत मुनि एवं आगमधर मुनि दिवंगत हो गये। भिक्षा की उचित प्राप्ति न होने के कारण अध्ययन, अध्यापन, धारण तथा प्रत्यावर्तन सभी अवरुद्ध हो गये। द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण ग्रहण, गुणन एवं अनुप्रेक्षा के अभाव में सूत्र नष्ट हो गये। किन्तु सम्पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हुए। समस्त श्रमण संघ ने आचार्यों के नेतृत्व में पांच वाचनाएं ली।२१ उनमें मुख्यतः तीन अधिक प्रसिद्ध हैं। आगम संकलन हेतु प्रथम वाचना वीर निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में ली गई, जिसका नामकरण ही पाटलीपुत्रवाचना है। आगम संकलन का द्वितीय प्रयास वीर निर्वाण के ८२७ और ८४० के बीच स्कंदिलाचार्य की अध्यक्षता में मथुरा में हुआ। इसलिये इसे माथुरी-वाचना और 'स्कन्दिली वाचना' भी कहा जाता है। इसी समय वल्लभी में भी आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में संघ एकत्रित हुआ। जिन-जिन श्रमणों को जो-जो स्मृति में था, उसे संकलित किया गया। अतः उसे 'वल्लभी वाचना' अथवा 'नागार्जुनीय वाचना' भी कहा गया। अन्तिम वाचना वीर-निर्वाण को दशवीं शताब्दी (९८०-९९३ वर्ष) में देवद्धिंगणिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में पुनः वल्लभी में हुई। स्मृति दौर्बल्य, परावर्तन की न्यूनता, धृति का हास और परम्परा की व्यवच्छित्ति आदि-आदि कारणों से श्रुत का अधिकांश भाग नष्ट सा हो गया। विस्मृत श्रुत को संकलित एवं संग्रहित करने का, पुनः प्रयत्न किया गया। देवर्द्धिगणी ने अपनी बुद्धि प्रतिभा से उसकी संयोजना करके उसे पुस्तकारूढ़ किया। उन्होंने माथुरी और वल्लभी वाचनाओं के कंठगत आगमों को एकत्रित करके उन्हें एकरूपता देने का प्रयास किया। जहाँ अत्यन्त मतभेद था वहाँ माथुरी वाचना को मूल मानकर वल्लभी वाचना के पाठों को पाठान्तर में स्थान दिया। फलतः यही कारण है कि आगम के व्याख्याग्रंथों में यत्र-तत्र 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' इस प्रकार का उल्लेख मिलता है। हम देखते हैं कि आगम साहित्य का मौलिक स्वरूप बड़े परिमाण में जैन साधना पद्धति में ध्यान योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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