________________
है। उपांग की तरह ही मूल और छेद का भी विषय अन्वेषण का ही है। 'छेद सूत्र' का सर्वप्रथम प्रयोग आवश्यक नियुक्ति में मिलता है, तदनन्तर विशेषावश्यक भाष्य और निशीथ भाष्य में।१५ कहीं-कहीं छेद सूत्रों की संख्या छह, पांच और चार मिलती हैं। किन्तु चार ही संख्या योग्य है। क्योंकि जीतकल्प जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का होने से आगम की कोटि में नहीं आ सकता। वैसे ही हरिभद्र द्वारा पुनरुद्धार किया गया महानिशीथ भी आगम की कोटि में नहीं आ सकता। केवली, अवधि-ज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर और दशपूर्वधर की रचना को ही आगम कहा जाता है।१६ अतः 'छेद' चार ही है और वह उत्तम श्रुत माना जाता है। क्योंकि उसमें प्रायश्चित्त विधि का विधान है। प्रायश्चित्त विधि से चारित्र की विशुद्धि होती है और चारित्र की विशुद्धि से परमात्मपद की प्राप्ति होती है। एतदर्थ यह उत्तम श्रुत है। १७ इस प्रकार हमें विक्रम सं. १३३४ में निर्मित प्रभावक चरित्र में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल, और छेद का विभाजन मिलता है, तदनन्तर उपाध्याय समयसुन्दरगणि के समाचारी शतक में ८ प्राप्त होता है।
वर्तमान काल में उपलब्ध जो अंग साहित्य है; वह सुधर्मा की वाचना का है। इसलिये वह सुधर्मा द्वारा रचित माना जाता है। द्वादशांगी को श्वेताम्बर और दिगम्बर समान संख्या में ही मानते हैं।१९ किंतु अंग बाह्य आगमों की संख्या में एक मतैक्य नहीं है। उनमें विभिन्नता नजर आती है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मूल आगों में नियुक्तियों को मिलाकर४५ आगम मानते हैं, जब कि दिगम्बर ८४ आगम मानते हैं। स्थानकवासी
और तेरापंथी परंपरानुसार ३२ ही आगम माने जाते हैं। उन आगमों की तालिका इस प्रकार है-२० १२ अंग
१२ उपांग १) आयार (आचार)
१) उववाइय (औपपातिक) २) सूयगड (सूत्रकृत)
२) रायपसेणइज्जं (राजप्रसेनजितकं)
अथवा रायपसेणिय, राजप्रश्नीय ३) ठाण (स्थान)
३) जीवाजीवाभिगम (जीवाभिगम) ४) समवाय
४) पण्णवणा (प्रज्ञापना) ५) विवाह पण्णत्ति
५) सूरपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्ति) (भगवती, व्याख्याप्रज्ञप्ति) ६) नायाधम्मकहाओ
६) जंबूद्दीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) ७) उवासगदसाओ
७) चंदपण्णत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्ति) ८) अंतगडदसाओ (अन्तकृद्दशा) ८) निरयावलियाओ ९) अनुत्तरोववाइयदसाओ ९) कप्पवडिसियाओ
ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org