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________________ उत्तरवर्ती साहित्य रचना के लिए इसे 'पूर्व' कहा गया है। दूसरे मत के अनुसार पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा की श्रुतराशि है। भगवान महावीर से पूर्ववर्ती होने के कारण यह श्रुत राशि पूर्व कहलाती है। सामान्य अथवा साधारण बुद्धि वाले इसे नहीं समझ सकते, उनके लिए द्वादशांगी की रचना की गई।३ आगे चलकर द्वादशांगी को ही व्याख्याक्रम और विषयक्रम के अनुसार चार अनुयोगों में विभाजित किया गया। व्याख्याक्रम की दृष्टि से आगम का विश्लेषण दो भागों में किया गया-४ अपृथक्त्वानुयोग और पृथक्त्वानुयोग। आर्यरक्षित के पूर्व अपृथक्त्वानुयोग का ही प्रचलन था। उसमें प्रत्येक सूत्र की चरण-करण, धर्म, गणित और द्रव्य की दृष्टि से व्याख्या की जाती थी। इस व्याख्याक्रम की प्रणाली अत्यन्त जटिल थी। मेधावी शिष्यगण भी इसे समझने में असफल होने लगे। इसलिये आर्यरक्षित ने पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन किया। और उसे विषय सादृश्य की दृष्टि से चार भागों में विभाजित किया। चरण-करणानुयोग (कालिक श्रुत, छेद श्रुत आदि), धर्मकथानुयोग (ज्ञाताधर्म कथा, उत्तराध्ययन आदि), गणितानुयोग (सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि) और द्रव्यानुयोग५ यह तो स्थूल वर्गीकरण है। इन चार अनुयोगों का दिगम्बर साहित्य में भी कुछ रूपान्तर से नाम मिलते हैं-६ प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग (पुराण, महापुराण) (त्रिलोक प्रज्ञप्ति व तिलोक सार) (मूलाचार और द्रव्यानुयोग) प्रवचनसार, गोम्मट सार आदि। अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य रूप में भी आगम साहित्य का वर्गीकरण मिलता है। किन्तु नन्दीसूत्र में अंग बाह्य के स्थान पर अनंग प्रविष्ट शब्द उपलब्ध होता है। तथा अंग बाह्य ग्रंथों की सामान्य संज्ञा 'प्रकीर्णक' भी प्रतीत होती है। निरयावलियासूत्र के प्रारम्भिक उल्लेख में अंग बाह्य के लिये 'उपांग' शब्द का प्रयोग मिलता है।८ ठाणांग, समवायांग, अनुयोगद्वार तथा अवचूरि (पाक्षिक) तक तो अंग और अंग बाह्य रूप में ही आगमों का विभाजन मिलता है। उत्तरोत्तर आचार्यों के ग्रंथ में भी यही क्रम मिलता है। किन्तु स्मरण रहे कि सभी तीर्थंकरों के समक्ष द्वादशांगी का ही स्वरूप नियत रहता है; अंग बाह्य (अनंग प्रविष्ट) का नहीं।१० अंग बाह्य रचना दो प्रकार की है - कृत (स्वतंत्र) और नि!हण। जो आगम पूर्वो या द्वादशांगी से उद्धृत किये जाते हैं, वे निर्वृहण कहलाते हैं। ११ और भी विशेष तौर से अंग बाह्य आगम साहित्य को आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक रूप में विभाजित किया गया है।१२ __ आगम साहित्य का चतुर्थ वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल और छेद के रूप में हमारे सामने आता है। तत्त्वार्थ भाष्य में अंग बाह्य के रूप में ही 'उपांग' शब्द का प्रयोग किया है।१३ तदनन्तर आचार्य श्री चन्द्र, जिनप्रभ एवं चूर्णि साहित्य में उपांग शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। १४ इस शब्द का प्रयोग पहले किसने किया, यह अन्वेषण का विषय जैन साधना पद्धति में ध्यान योग ३५ Jain Education International . For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002078
Book TitleJain Sadhna Paddhati me Dhyana yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1991
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Philosophy
File Size10 MB
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