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अध्याय २
ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
जैन साधना के स्वरूप का आकलन करने के पूर्व यह आवश्यक है कि हम इस साधना के आधारभूत साहित्य का एक परिचयात्मक आकलन करें। जैन धर्म के आधारभूत साहित्य को हम अपनी दृष्टि से दो भागों में विभाजित करके देख सकते हैं :
१) मूलभूत आगम साहित्य और
२) व्याख्यात्मक आगम साहित्य
जिसके अन्तर्गत नियुक्तियाँ, भाष्य, चूर्णियाँ और टीकाएँ हैं । आगमेतर साहित्य के अन्तर्गत हम उन जैनाचार्यों के साहित्य का समावेशन कर सकते हैं जिन्होंने भले ही प्राचीन आगम साहित्य का आधार तो लिया है लेकिन उन्होंने अपने अनुभवों को भी, साहित्य में समाहित किया है। आगे के पृष्ठों में हम इसी क्रम से संबंधित जैन साहित्य का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।
भारत के दार्शनिक साहित्य में जैन आगम साहित्य का विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह साहित्य जैन साहित्य का प्राचीन विश्लेषण माना जाता है। इसमें साधना साहित्य भी समाविष्ट है। जैन मान्यताओं के अनुसार भगवान् महावीर की वाणी आगम कहलाती है। दूसरे शब्दों में भगवान् महावीर की वाणी ही आगम है। आचार्य समन्तभद्र ने आगम शास्त्र के छह गुण बतलाये हैं। प्राचीन काल में श्रुत अथवा सम्यक् श्रुत, श्रुतकेवली, आगम केवली, सूत्र केवली, श्रुतस्थविर इत्यादि शब्दों का प्रयोग और सूत्र, ग्रंथ, सिद्धांत, उपदेश, प्रवचन, जिनवचन इत्यादि शब्द आगम के लिए प्रयुक्त हुये हैं। पदार्थों के यथार्थ बोध का ज्ञान आचार संहिता से युक्त और आप्त वचन से उत्पन्न अर्थ ज्ञान आगम कहलाता है। विशेष ज्ञान भी आगम का विषय है। आगम में गणिपिटक अथवा द्वादशांगी का प्रमुख स्थान है। यह स्वतः प्रमाण है। शेष आगम परतः प्रमाण है। र 'पूर्व' और 'अंग' के रूप में आगम साहित्य का वर्गीकरण किया गया है। पूर्व में चौदह ही संख्या हैं। इनमें श्रुत अथवा शब्द ज्ञान के विषयों का विवेचन है। इनकी रचना के विषय में दो विचार धाराएँ हैं। यह साहित्य द्वादशांगी से प्रथम (पूर्व) निर्मित हुआ; इसलिये
ध्यान साधना संबंधी जैन साहित्य
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